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Reading: Vishnu Puran | विष्णु पुराण प्रथम अंश: पढ़े अध्याय 1 और 2
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Marg Darshan > Blog > Bhakti > Vishnu puran > Vishnu Puran | विष्णु पुराण प्रथम अंश: पढ़े अध्याय 1 और 2
BhaktiVishnu puran

Vishnu Puran | विष्णु पुराण प्रथम अंश: पढ़े अध्याय 1 और 2

Anushka Mishra
Last updated: January 9, 2025 8:00 pm
By Anushka Mishra
20 Min Read
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विष्णु पुराण एक मुख्य हिंदू धर्म का ग्रंथ है, जिसमें सृष्टि, पालन और विनाश के सिद्धांतों को विस्तार से समझाया गया है।

Contents
विष्णु पुराण-प्रथम अंश अध्याय 1प्रथम अंश अध्याय 2

इस विष्णु पुराण में भगवान विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में दर्शाया गया है।विष्णु पुराण में ही धर्म, कर्म, मोक्ष और भक्ति का महत्व स्पष्ट किया गया है और वैदिक ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है।

यह विष्णु पुराण ग्रंथ सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन नहीं करता है, बल्कि जीवन जीने की उच्चतर शैली को बताता है।

विष्णु पुराण में सृष्टि, मानव समाज और प्रकृति के संतुलन का गहन संदेश छुपा है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश के लिए पढ़े

भगवान विष्णु विष्णु पुराण

विष्णु पुराण-प्रथम अंश अध्याय 1

एक समय की बात है जब,श्री सूत जी बोले मैत्र जी ने नित्य कर्मों से निमित्त हुए मुनिवर पाराशर जी को प्रणाम कर एवं उनके चरण छूकर पूछा कि हे गुरुदेव मैंने आप ही से संपूर्ण वेद वेदांग और सकल धर्म शास्त्रों का क्रमशः अध्ययन किया है।

हे मुनिश्रेष्ठ आपकी कृपा से मेरे विपक्षी भी मेरे लिए यह नहीं कह सकेंगे कि मैं संपूर्ण शास्त्रों के अभ्यास में परिश्रम नहीं किया। हे धर्मग्य हे महाभाग अब मैं आपके मुख से यह सुनना चाहता हूं कि यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ? और आगे भी दूसरे कल्प में आरंभ कैसे होगा? तथा है ब्राह्मण इस संसार का उपादान कारण क्या है? यह संपूर्ण चराचर किस्से उत्पन्न हुआ है?

यह पहले किस में लीन था और आगे किस में लीन हो जाएगा? इसके अतिरिक्त आकाश आदि भूतों का परिमाण समुद्र पर्वत तथा देवता आदि की उत्पत्ति पृथ्वी का अधिष्ठान और सूर्य आदि का परिमाण तथा उनका आधार देवता आदि के अंश, मनु मनमांतर बार-बार आने वाले चारों युगों में विभक्त कप और कल्पो के विभाग प्रलय का स्वरूप युगों के पृथक पृथक संपूर्ण देवर्षि और राज ऋषियों के चरित्र श्री व्यास जी के कृत वैदिक शाखों की यथावत रचना तथा ब्रह्मण आदि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के धर्म यह सब हे महामुनि शक्ति नंदन मैं आपसे सुनना चाहता हूं।

हे ब्राह्मण आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसाद उन्मुख कीजिए जिससे हे महामुनि मैं आपकी कृपा से यह सब जान सकूं श्री पाराशर जी बोले हे धर्मग्य मैत्रेय, मेरे पिताजी के पिता वशिष्ठ जी ने इसका वर्णन किया था। उसे पूर्व प्रसंग का तुमने मुझे अच्छा स्मरण करवाया। इसके लिए तुम धन्यवाद के पात्र हो।

हे मैत्रेय, जब मैंने सुना कि पिताजी को विश्वामित्र की प्रेरणा से राक्षस ने खा लिया है तो मुझको बहुत भारी क्रोध हुआ तब राक्षसों का ध्वंस करने के लिए मैं यज्ञ करना आरंभ किया।

उस यज्ञ में सैकड़ो राक्षस जलकर भस्म हो गए, इस प्रकार उन राक्षसों को सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग्य पितामह बोले की है वत्स अत्यंत क्रोध करना ठीक नहीं है।

अब इसे शांत करो राक्षसों का कुछ भी अपराध नहीं है तुम्हारे पिता के लिए तो ऐसा ही होना था क्रोध तो मूर्खों को ही हुआ करता है। विचार वालों को भला कैसे हो सकता है। भला कौन किसी को मारता है।

पुरुष स्वयं ही आपने किया का फल भोगता है। है प्रियवर यह क्रोध तो मनुष्य के अत्यंत कष्ट से संचित यश और तब का भी प्रबल नाशक है।

हे तात इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ने वाले इस क्रोध का महर्षिगण सर्वथा त्याग करते हैं इसलिए तुम इसके वशीभूत मत हो अब इसके बेचारे निरपराध राक्षसों को दगद करने से कोई लाभ नहीं है। अपने इस यज्ञ को समाप्त करो।

साधुओं का धन तो सदा क्षमा ही है महात्मा दादाजी के इस प्रकार समझाने पर उनकी बातें गौरव का विचार करके मैंने यह योग्य समाप्त कर दिया इससे मुनि श्रेष्ठ भगवान वशिष्ठ जी बहुत प्रसन्न हुए इस समय ब्रह्मा जी के पुत्र पुलस्त जी वहां आए।

हे मैत्रेय पितामह वशिष्ठ जी ने उन्हें अर्घ दिया तब वह महर्षि पुलह के ज्येष्ठ भ्राता महाभाग्य पुलस्त जी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले।

तुमने वैर्भाव रहने पर भी अपने बड़े बूढ़े वशिष्ठ जी के कहने से क्षमा स्वीकार की है इसीलिए तुम संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता होंगे। हे महाभाग्य अत्यंत क्रोधित होने पर भी तुमने संतान का सर्वथा मालूच्छेद नहीं किया अतः मैं तुम्हें एक और उत्तम भर देता हूं।

सुनो वत्स तुम पूरण संहिता के वक्ता होंगे और देवताओं के यथार्थ स्वरूप को जानोगे। तथा मेरे प्रसाद से तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति भोग और क्षमता के उत्पन्न करने वाले कर्मों में निसंदेह हो जाएगी पुलस्त जी के इस तरह कहने पर फिर मेरे पितामह भगवान वशिष्ठ जी बोले पुलस्त ने जो कुछ कहा है वह सभी सत्य होगा हे मैत्रेय इस प्रकार पूर्व काल में बुद्धिमान वशिष्ठ जी और पुलस्त जी को जो कुछ कहा था वह सब तुम्हारे प्रश्न से मुझे स्मरण हो आया है अतः हे मैत्रेय मैं तुम्हारा पूछने पर इस संपूर्ण पुराण संहिता को तुम्हें सुनाते हो।

तुम उसे भली प्रकार से ध्यान देकर सुनो। यह जगत विष्णु से उत्पन्न हुआ है। उन्हें में स्थित है और उन्हें में ही इसकी स्थिति और प्रलय के करता है तथा यह जगत भी वही है इस प्रकार से श्री विष्णु पुराण में प्रथम अंश में पहला अध्याय की कथा पूर्ण हुई।

प्रथम अंश अध्याय 2

श्री पराशर जी बोले जो ब्रह्म विष्णु और शंकर रूप से जगत की उत्पत्ति स्थिति और संघार के कारण है तथा अपने भक्तों को संसार सागर से तारने वाले हैं उन विकार रहित शुद्ध अविनाशी सर्वदा एक रस सर्व विजय भगवान वासुदेव विष्णु को नमस्कार है।

जो एक होकर भी नाना रूप वाले हैं अस्थूल सूक्ष्म मय है अव्यक्त कारण एवं व्यक्त कार्य रूप है तथा अपने अन्य भक्तों की मुक्ति के कारण है उन्हें श्री विष्णु जी की उत्पत्ति स्थिति और संघार के मूल विष्णु भगवान को नमस्कार है। जो विश्व के अधिष्ठान है अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है सर्व प्राणियों में स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है जो परमार्थ अती निर्मल ज्ञान रूप है किंतु अज्ञान वस नाना पदार्थ रूप से प्रतीत होते हैं।

तथा जो कल स्वरूप से जगत की उत्पत्ति और स्थिति में समर्थ और उसका संघार करने वाले हैं उन्हें जगदीश्वर अजन्मा अक्षय और अव्यय भगवान विष्णु को प्रणाम करके तुम्हें वह सारा प्रसंग कर्मष सुनाता हूं।

जो तक आदि मुनि श्रेष्ठों के पूछने पर पितामह भगवान ब्रह्मा जी ने उसे कहा था वह प्रसंग दक्ष आदि मुनियों ने नर्मदा तट पर राजा पुरु कुशकू को सुनाया था तथा पुरु कुश ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझे कहा था जो पर यानी की प्रकृति से भी पर परम श्रेष्ठ अंतरात्मा में स्थित परमात्मा रूप वर्ण नाम और विशेषण आदि रहित है।

जिनमें जन्म वृद्धि परिणाम क्षय और नाश इन छह विकारों का सर्वथा अभाव है जिसको सर्वदा केवल है इतना ही कह सकते हैं तथा इसके लिए यह प्रसिद्ध है कि वह सर्वत्र है और उनमें समस्त विश्व बसा हुआ है इसलिए ही विद्वान जिसको वासुदेव कहते हैं।

वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एक रस और हेय गुणों के अभाव के कारण निर्मल परमब्रह्मा है वही इन सब व्यक्त कार्य और अव्यक्त कारण जगत के रूप से तथा इसके साक्षी पुरुष और महा कारण काल के रूप में स्थित है।

परमब्रह्मा का प्रथम रूप पुरुष है अव्यक्त यानी प्रकृति और व्यक्ति यानी महा दादी उसके अनन्य रूप है। तथा कल उसका परम रूप है इस प्रकार प्रधान पुरुष व्यक्त और कल इन चारों से परे हैं। तथा जिसे पंडित जान ही नहीं देख पाते हैं वही भगवान विष्णु का परम पद है।

प्रधान पुरुष व्यक्त और काल यह रूप भगवान के पृथक पृथक संघारकारी उत्पत्ति पालन और संघार के प्रकाश तथा उत्पादन के कारण है भगवान विष्णु जो व्यक्त अव्यक्त पुरुष और काल रूप से स्थित होते हैं इसे उनकी बाल क्रीड़ा ही समझो उन में अव्यक्त कारण को जो सदस ध्रुप और नित्य है श्रेष्ठ मुनीजा प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं वह शय रहित है।

इसका कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रिय में अजर निश्चल शब्द अर्थ परसादी शून्य और रूपादिराहित रहित है वह त्रिगुणमय और जगत का कारण है तथा स्वयं अनाड़ी एवं उत्पत्ति और ले से रहित है। यह संपूर्ण प्रपंच प्रलय काल से लेकर सृष्टि के आदि तक उसी से व्याप्त है।

हे विदव श्रुति के मर्म को जानने वाले श्रुति पराणय ब्रह्मा महात्मा गण इसी को अर्थ को लक्ष्य करके प्रधान के प्रतिपादक इस श्लोक को कहा करते हैं। उसे समय ना दिन था नवरात्रि थी ना आकाश था और ना ही पृथ्वी थी ना अंधकार था ना प्रकाश था और ना इनके अतिरिक्त कुछ और ही था बस स्रोत आदि इंद्रियों और बुद्धि आदि का विषय एक प्रधान ब्रह्मा और पुरुष ही था वह विप्र विष्णु के स्वरूप से प्रधान और पुरुष यह दो रूप हुए इसी के जी अन्य रूप के द्वारा वे दोनों संयुक्त और युक्त होते हैं उसे रूपांतर का ही नाम काल है।

बीते हुए प्रलय काल में यह व्यक्त प्रपंच प्रकृति मैं ली था इसलिए प्रपंच के इस प्रलय को प्राकृतिक प्रलय कहते हैं। है कालू रूप भगवान अनाड़ी है इसका अंत नहीं है इसलिए संसार की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते।

हे मेत्रेय प्रलय कल में प्रधान के साम्यावस्था में स्थित हो जाने पर पुरुष के प्रकृति से पृथक स्थित हो जाने पर विष्णु भगवान का काल रूप प्रवत होता है। तदनंतर उन परम ब्रह्म परमात्मा विश्व रूप सर्वव्यापी सर्व भूतेश्वर सर्वात्मक ने अपनी इच्छा से विकारी प्रधान और अविकारी पुरुष में प्रविष्ट होकर उनको शोभित किया। जिस प्रकार क्रियाशील ना होने पर भी गढ़ अपनी सानिध्य मात्र से ही मानों को शोभती करता है।

उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधि मात्र से ही प्रधान और पुरुष को प्रेरित करता है ही ब्रह्मा वह पुरुषोत्तम कि उनको शोभित करने वाला है और वही शुभ होते हैं तथा संकोच और विकास युक्त प्रधान रूप से ही स्थित है।

ब्राह्मणी समस्त ईश्वरों के ईश्वर वह विष्णु ही जीव रूप तथा महत्व रूप से स्थित है हेडविज श्रेष्ठ सर्वकाल की प्राप्त होने पर गुना की स्यावता रूप प्रधान जब विष्णु के क्षेत्रज्ञ रूप अधिष्ठित हुआ है।

तो उसके महत्व की उत्पत्ति हुई। महान को प्रधान तत्व ने आवर्त किया माह तत्व सात्विक राजस और थॉमस भेद से तीन प्रकार का है किंतु जिस प्रकार बीज छीलने से संभव से ढका रहता है वैसे ही यह त्रिविद्ध मतत्व प्रधान तत्व से सब और व्याप्त है फिर विविध मत्व से ही वकार तेजस और तामस भूतादि तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ।

हे महामुनि वह त्रिगुणात्मक होने से भूत और इंद्रिय आदि का कारण है और प्रधान से जैसे तत्व व्याप्त है वैसे ही महा तत्व से वह अहंकार व्याप्त है भुतादी तामस अहंकार ने विकृत होकर शब्द तन मात्रा और उस शब्द गुण वाले आकाश के रचना की और उसे भूतादी तामस अहंकार ने शब्द तन मात्रा रूप आकाश को प्राप्त किया फिर आकाश में वक्त होकर स्पर्श तन मात्रा को रचा उसे स्पर्श तन मात्र को रचा।

उस स्पर्श तन मात्र से बलवान वायु हुआ उसका गुण स्पर्श माना गया शब्द तन मात्रा रूप आकाश ने स्पर्श तन मात्रा वाले वायु को आवृत्त किया है फिर वायु ने विकृत होकर रूप तन मात्रा की सृष्टि की वायु से तेज उत्पन्न हुआ है उसका गुण रूप कहा जाता है स्पर्श तन मात्रा रूप वायु ने रूप तन मात्रा वाले तेजो को आवृत्त किया फिर तेज ने भी विकृत होकर रस तन मात्रा की रचना की उसे रस तन मात्रा रूप से रस गुण जल हुआ रस तन मात्रा वाले जल को रूप तन मात्रा में तेज ने आवृत्त किया।

जल ने विकार को प्राप्त होकर गंध तन मात्र की सृष्टि की उससे पृथ्वी उत्पन्न हुई जिसका गुण गंध मात्र जाता है। उन आकाशादि भूतों में तन मात्र है अर्थात केवल उनके गुण शब्द आदि है इसलिए वे तन मात्रा ही कही गई है।

तन मात्राओं में विशेष भाव नहीं है इसलिए उनके अवशेष संज्ञा है वह अविशेष तन मात्राएं शांत घर अथवा मद नहीं है इस प्रकार तामस अहंकार, यह भूत तन मात्रा रूप सर्ग हुआ है।

10 इंद्रियां और तेजस अर्थात राजेश अहंकार से और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। इस प्रकार इंद्रियों के अधिष्ठाता 10 देवता और 11वां मन वैकारिक सात्विक है। हे द्विज त्वक चक्षु नासिक हुआ और सोत्र यह पांच बुद्धियों की सहायता से शब्दादिक विषयों को ग्रहण करने वाली पांच ज्ञानेंद्रिय है।

हे मेत्रेय यानी गुदा,उपस्थ यानी लिंग, हस्त पाद और वाक यह पांच कर्मेंद्रियां है। इनके कारण मल मूत्र का त्याग शिल्प गति और वचन बतलाए जाते हैं। आकाश,वायु, तेज, जल और पृथ्वी यह पांच भूत उपरोक्तर कर्म सह शब्द स्पर्श आदि पांच गुणों से युक्त है।

यह पांचो भूत शांत घोर और मढ़ है अर्थात सुख-दुख और मोह युक्त है अतः यह विशेष कहलाते हैं इन भूतों में पृथक पृथक नाना शक्तियां है अतः यह परस्पर पूर्ण तरह मिले बिना संसार की रचना नहीं कर सकते इसलिए एक दूसरे के आश्रय रहने वाले और एक ही संघट की उत्पत्ति के लक्ष्य वाले महा तत्व लेकर विशेष पर्याप्त प्रकृति के इन सभी विकारों ने पुरुष के अधिष्ठापन कर सर्वथा एक होकर प्रधान तत्व के अनुग्रह से अंडे की उत्पत्ति की।

हे महा बुद्धि जल के बुलबुले के सामान कम सा भूतों से बड़ा हुआ वह गोलाकार और जल पर स्थित महान अंड ब्रह्मा हिरण्य गर्भ रूप विष्णु का अति उत्तम प्रकृति का आधार हुआ उसमें भी अव्यक्त स्वरूप जगतपति विष्णु व्यक्त हिरण्य गर्भ रूप से स्वयं ही विराजमान हुए।

उन महात्मा हिरण्य गर्भ का सुमेर अन्य पर्वत और जरायु तथा समुद्र गर्भाशय रस था। हे विप्र उस अंड में ही पर्वत और द्विप आदि के सहित समुद्र ग्रह गण के सहित संपूर्ण लोक तथा देव असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणी वर्ग प्रकट हुए वह अंड पूर्व की अपेक्षा 10-10 गुना अधिक जल अग्नि वायु आकाश और भूतड़ी अर्थात तामस अहंकार से आवृत्त है। तथा भूत आदि महत्व से घिरा हुआ है और इन सब के सहित वह मह तत्व भी अव्यक्त प्रधान से आवृत्त है।

इस प्रकार जैसे नारियल के फल का भीतर का बीज बाहर से कितना ही छिलकों से ढका रहता है वैसे ही यह अंड इन साथ प्राकृतिक आवरण से घिरा हुआ है उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुण का आश्रय लेकर इस संसार की रचना में प्रवृत होते हैं तथा रचना हो जाने पर सत्व गुण विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान विष्णु उसका कल्पांतर पर्यंत युग युग में पालन करते हैं।

हे मेत्रेय फिर कल्पना का अंत होने पर अति दारुण तम प्राधान रूद्र रूप धारण करें जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतों का भक्षण कर लेते हैं इस प्रकार समस्त भूतों का भक्षण कर संसार को जल में करके वह परमेश्वर शेष सैया पर शयन करते हैं। जिन पर ब्रह्म रूप होकर वे फिर जगत की रचना करते हैं।

वह एक ही भगवान जनार्दन जगत की सृष्टि स्थिति और संघार के लिए ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों संख्याओं को धारण करते हैं।

वे प्रभु विष्णु स्पष्टा ब्रह्मा होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं पलक विष्णु होकर पाल रूप अपना ही पालन करते हैं और अंत में स्वयं ही संघर्ष शिव तथा स्वयं ही उपस्थित लीन होते हैं पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश तथा समस्त इंद्रियों और अंतःकरण आदि जितना जगत है सब पुरुष हैं और क्योंकि वह अव्यक्त विष्णु ही विश्व रूप और सब भूतों के अंतरात्मा है इसलिए ब्रह्मा प्राणियों में स्थित स्वर्गा भी उन्हीं के उपकार है सर्व स्वरूप श्रेष्ठ वरदान और वह भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अव्यवस्थाओं द्वारा रचने वाले हैं। वही पलते हैं वही पालीत होते हैं वही संघार करते हैं और स्वयं ही सृत होते हैं।
इस प्रकार विष्णु पुराण प्रथम अंश में दूसरे अध्याय की कथा पूर्ण हुई तो बोलिए प्रेम से भगवान विष्णु की जय

विष्णु पुराण Audiobook

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ByAnushka Mishra
An enthusiast author at Marg Darshan who holds the proficiency in the fields of Finance, Ethics and Sports.
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