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Reading: Vishnu Puran | विष्णु पुराण प्रथम अंश: पढ़े अध्याय 3 और 4
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BhaktiVishnu puran

Vishnu Puran | विष्णु पुराण प्रथम अंश: पढ़े अध्याय 3 और 4

Anushka Mishra
Last updated: January 12, 2025 11:32 pm
By Anushka Mishra
17 Min Read
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विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 3

इस अध्याय में ब्रह्मा जी की आयु और काल का स्वरूप वर्णन किया गया है। श्री मैत्रेय जी बोले, हे भगवान जो ब्रह्म निर्गुण अप्रैमे और निर्मल आत्मा है उसका स्वर्गाधी का कर्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है?

Contents
विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 3अध्याय 4-विष्णु पुराण प्रथम अंश

श्री पराशर जी बोले, हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय, समस्त भाव पदार्थ की शक्तियां अचिंत ज्ञान की विषय होती है अतः अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी स्वर्गाधी रचना या स्वाभाविक हैं।

अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक पितामह भगवान ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना में प्रवत होते हैं तो सुनो हे विद्वान वे सदा उपचार से ही उत्पन्न हुए कहलाते हैं।

उनके अपने परिणामों से उनकी आयु 100 वर्ष की कही जाती है।

उस 100 वर्ष का नाम पर है।

उसका आधा परार्थ कहलाता है। हे अनघ मैंने जो तुमसे विष्णु भगवान का कल स्वरूप कहा था उसी के द्वारा उसे ब्रह्म की तथा और भी जो पृथ्वी पर्वत समुद्र आदि चराचर जीव है उनकी आयु का परिमाण किया जाता है।

हे मुनिश्रेष्ठ 15 निमेष को काष्ट कहते हैं। 30 काष्ट की एक कला होती है। तथा 30 कला का एक मुहूर्त होता है।

30 मुहूर्त का मनुष्य का एक दिन और रात कहा जाता है। और उतने ही दिन रात को दो पक्ष युक्त एक मास होता है।

6 महीना का एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर 1 वर्ष होता है।

दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है और उत्तरायण दिन।

देवताओं के 12000 वर्षों के सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग नमक चार युग होते हैं। उनका अलग-अलग परिमाण है जो अब मैं तुमसे सुनाता हूं।

पुरातत्व के जानने वाले सतयुग आदि का परिमाण कर्मशः चार तीन दो और एक हज़ार दिव्य वर्ष बतलाये हैं।

प्रत्येक युग के पूर्व उतने ही 100 वर्ष की संध्या बताई जाती है और युग के पीछे उतने ही परिमाण वाले गद्यांश होते हैं अर्थात सतयुग आदि के पूर्व कर्मशः चार तीन दो और एक सौ दिव्य वर्ष की संध्या और उतने ही वर्ष के संध्यान्श होते हैं।

हे मुनिश्रेष्ठ इन संध्या और संध्यान्शो के बीच का जितना काल होता है उसे ही सतयुग आदि नाम वाले युग जानना चाहिए।

मुनि सतयुग त्रेता द्वापर और कली यह मिलकर चतुर युग कहलाते हैं। ऐसे हजार चातुर्यों का ब्रह्मा का एक दिन होता है।

हे ब्राह्मण ब्रह्मा के एक दिन में 14 मनु होते हैं। उनका काल कृत्य परिमाण सुनो सप्त ऋषि, देवगण ,इंद्र, मनु और मनु के पुत्र राजा लोक एक ही काल मैं रचे जाते हैं और एक ही कल में उनका संघार होता है।

हे सत्तम 71 चतुर युग से कुछ अधिक काल का एक मन्वंतर होता है। यही मनु और देवता आदि का काल है। इस प्रकार दिव्य वर्ष गणना से एक मन्वंतर में आठ लाख बावन हज़ार (8,52,000) वर्ष बताए जाते हैं।

तथा हे महामुनि मानवी वर्ष गणना के अनुसार मन्वंतर का परिमाण पूरे 30 करोड़ 67 लाख 20 हज़ार वर्ष है, इससे अधिक नहीं इस कल का 14 गुना ब्रह्मा का दिन होता है।

उसके अनंतर नैमितीक नाम वाला ब्राह्मण प्रलय होता है उसे समय भूलोक मैं भुवर लोक और स्वर्ग लोक तीनों जलने लगते हैं।

और महर लोक में रहने वाले सिद्ध गण अति संतृप्त होकर जन लोक को चले जाते हैं इस प्रकार त्रिलोकी के जाल में हो जाने पर जनलोक वासी योगो द्वारा ध्यान किए जाते हुए नारायण कमल योनी ब्रह्मा जी त्रिलोकी के ग्रास से तृप्त होकर दिन के बराबर ही परिमाण वाली उस रात्रि में शेष सैया पर चयन करते हैं और उसके बीत जाने पर पुनः संसार की सृष्टि करते हैं।

इसी प्रकार पक्ष मांस आदि गणना से ब्रह्मा का एक वर्ष होता है और फिर 100 वर्ष होते हैं।

ब्रह्मा के 100 वर्ष ही उसे महात्मा की पर आयु है। हे अनक उन ब्रह्मा जी का एक परार्थ बीत चुका है।

उसके अंत में पाद्म नाम से विख्यात महाकल्प हुआ था हेडवेज इस समय वर्तमान उनके दूसरे परार्थ का यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है।

इस प्रकार से श्री विष्णु पुराण के प्रथम अंश का तीसरा अध्याय संपन्न हुआ

विष्णु पुराण

अध्याय 4-विष्णु पुराण प्रथम अंश

इस अध्याय में ब्रह्मा जी की उत्पत्ति वाराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उधर और ब्रह्मा जी की लोक रचना का वर्णन किया गया है।

श्री मैत्रेय और जी बोले, हे महामुनि कल्प के आदि में नारायणा अख्य भगवान ब्रह्मा जी ने जिस प्रकार समस्त भूतों की रचना की वह आप वर्णन कीजिए।

श्री पाराशर जी बोले प्रजापतियों के स्वामी नारायण स्वरूप भगवान ब्रह्मा जी ने जिस प्रकार प्रजा की सृष्टि की थी वह मुझे सुनो।

पिछले कल्प का अंत होने पर रात्रि में सो कर उठने पर सत्व गुण के उद्रेक से युक्त भगवान ब्रह्मा जी ने संपूर्ण लोगों को शून्यमय देखा। वे भगवान नारायण पर है, अचिंत है।

ब्रह्मा शिव आदि ईश्वरों के भी ईश्वर है।

ब्रह्म स्वरुप है वह अनादि है और सब की उत्पत्ति के स्थान है। उन ब्रह्म स्वरूप श्री नारायण देव के विषय में जो इस जगत की उत्पत्ति और लोक के स्थान है।

यह श्लोक कहते हैं। नर से उत्पन्न होने के कारण जल को नर कहते हैं व नर यानी कि जल ही उनका प्रथम अयन यानी की निवास स्थान है इसलिए भगवान को नारायण कहते हैं।

संपूर्ण जगत जलमय हो रहा था इसलिए प्रजापति ब्रह्मा जी ने हनुमान से पृथ्वी को जल के भीतर जान उसे बाहर निकालने की इच्छा से एक दूसरा शरीर धारण किया।

उन्होंने पूर्व कल्पों में जैसे मत्स्य कुर्म आदि रूप धारण किए थे वैसे ही इस वाराह कल्प के आरंभ में वेद यज्ञ में वराह शरीर ग्रहण किया और संपूर्ण जगत की स्थिति में तत्पर हो सबके अंतरात्मा और अविचल रूप वे परमात्मा प्रजापति ब्रह्मा जी जो पृथ्वी को धारण करने वाले और अपने ही आश्रय से स्थित है।

जन लोक स्थित सनकादिक सिद्धेश्वरों से स्तुति किये जाते हुए जल में प्रविष्ट हुए तब उन्हें पाताल लोक में आए हुए देखा देवी वसुंधरा अति भक्ति विनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी।

पृथ्वी बोली की है शंख चक्र गदा पद्म धारण करने वाले कमल नयन भगवान आपको नमस्कार है।

आज आप इस पाताल लोक से मेरा उद्धार कीजिए पूर्व काल में आप ही से मैं उत्पन्न हुई थी। हे जनार्दन पहले भी आप ही ने मेरा उद्धार किया था और हे प्रभु मेरे तथा आकाश आदि अन्य सब भूतों के भी आप ही उपाधन कारण है।

हे परमात्मा स्वरुप आपको नमस्कार है। हे पुरुषातमन आपको नमस्कार है। है प्रधान और व्यक्त रूप आपको नमस्कार है। है काल स्वरूप आपको बारंबार नमस्कार है। हे प्रभु जगत की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्मा विष्णु और रूद्र रूप धारण करने वाले आप ही संपूर्ण भूतों की उत्पत्ति पालन और नाश करने वाले हैं और जगत के एक अर्णव रूप यानी जलमय हो जाने पर हे गोविंद सबको भक्षण कर अंत में आप ही मनीषी जनों द्वारा चिंतित होते हुए जल में चयन करते हैं।

हे प्रभु आपका जो पर तत्व है उसे तो कोई भी नहीं जनता अतः आपका जो रूप अवतार में प्रकट होता है उसकी देवगण पूजा करते हैं।

आप परम ब्रह्म की आराधना करके मुमुक्षु जन मुक्त होते हैं। भला वासुदेव की आराधना किए बिना कौन मुख्य प्राप्त करता।

ग्रहण यानी की संकल्प किया जाता है। शक्षु आदि इंद्रियों से जो कुछ ग्रहण विषय करने योग्य है बुद्धि द्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आप ही का रूप है। हे प्रभु मैं आप ही का रूप हूँ,आप ही के आश्रित हूँ और आप ही के द्वारा रचित हूं तथा आप ही के शरण में हो इसलिए लोक में मुझे माधवी भी कहते हैं। हे संपूर्ण ज्ञानमय, हे अस्थूलमय, हे अव्यय आपकी जय हो।

हे अनंत है अव्यक्त हे व्यक्तमय प्रभु आपकी जय हो। हे परापर स्वरूप, हे विश्वात्मय, हे यज्ञपती है अनंत आपकी जय हो। हे प्रभु आप ही यज्ञ है आप ही वशत्कार हैं और आप ही ओमकार है और आप ही अग्निया है। हे हरि आप ही वेद वेदांग और यज्ञ पुरुष है, तथा सूर्य आदि ग्रह तारे नक्षत्र और संपूर्ण जगत भी आप ही है।

हे पुरुषोत्तम हे परमेश्वर मुर्त, अमूर्त, दृश्य, अदृश्य तथाजो कुछ मैंने कहा है और जो नहीं कहा वह सब आप ही है अतः आपको नमस्कार है ।

आपको बारंबार नमस्कार है। श्री पराशर जी बोले पृथ्वी द्वारा इस प्रकार स्तुति किए जाने पर सामश्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान धरनी धरने घर-घर शब्द से गर्जना की विकसित कमल की समान नेत्रों वाले उन महा वाराह ने अपनी दाढ़ से पृथ्वी को उठा लिया और वह कमल दल के समान श्याम तथा नीला चल के सदृश्य विशालकाय भगवान रसातल से बाहर निकले।

निकलते समय उनके मुख के स्वास से उछलते हुए जलने जन रुख में रहने वाले महा तेजस्वी और निष्पाप सुनंदन आदि मुनि स्वरों को भिगो दिया।

जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके गुरुओं से विधिर न हुए रसातल में नीचे की ओर जाने लगे और जन लोक में रहने वाले सिद्धि गढ़ उनके स्वास वायु से विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे जिनकी कुक्षी जल मैं भीगी हुई है वह महा वाराह जिस समय अपने देवमय शरीर को कपाटे हुए पृथ्वी को लेकर बाहर निकले उसे समय उनकी रोमावली स्थिति में मुनीजा स्तुति करने लगे।

उन निशंक और उन्नत दृष्टि वाले धराधर भगवान की जन्म लोक में रहने वाले सनन्दनादी योगेश्वर से प्रसन्न चित्रा से आती नर्मदा पूर्वक सर झुका कर इस प्रकार स्तुति की, हे ब्रह्मादी इस परम ईश्वर हे केशव है शंख गदाधर है खड़क चक्रधारी प्रभु आपकी जय हो।

आप ही संसार की उत्पत्ति स्थिति और नाश के कारण है तथा आप ही ईश्वर है और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे ही अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

हे यूप रूपी दाढ़ो वाले प्रभु आप ही यज्ञ पुरुष है। आपके चरणों में चारों वेद है। दातो में यज्ञ है। मुख में चित्तियां है। यज्ञ अग्नि जीवहा है तथा कुशाए रोमावली है।

सुने महात्मा रात और दिन आपके नेत्र है तथा सबका आधारभूत परमब्रह्मा आपका सिर है।

हे देव वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप स्कंध के रोम कुछ है और समग्र हवी आपके प्राण है।

प्रभु अस्तुक्र आपका तुंड यानी की थूथनी है।

सामश्वर धीर गंभीर शब्द है प्रांग वंश शरीर है तथा सत्र शरीर की सन्निधि है। हे देव है इष्ट स्रोत और पूर्त अस्मार्थ धर्म आपके कान है।

हे नित्य स्वरूप भगवान प्रसन्न होइए है अक्षर ही विश्व मूर्ति अपने पद प्रहार से भूमंडल को व्याप्त करने वाले आपको हम विश्व के आदि कारण समझते हैं।

आप संपूर्ण चराचर जगत के परमेश्वर और नाथ है।

अतः प्रसन्न होइए हे नाथ आपकी दाढ़ो पर रखा हुआ यह संपूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमल वनों को रोंगटे हुए गरज के दांतों से कोई कीचड़ में सना हुआ कमल का पता लगा हो।

सुने अनुपम प्रभावशाली प्रभु पृथ्वी की और आकाश के बीच में जितने अंतर है वह आपके शरीर से ही व्याप्त है।

हे विश्व को व्याप्त करने में सामर्थ तेज युक्त प्रभु आप विश्वास का कल्याण कीजिए। हे जगतपति।

हे परमार्थ सत्यवस्तु तो एक मात्र आप ही है आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं।

यह आपकी ही महिमा माया है जिससे यह संपूर्ण चराचर जगत व्याप्त है यह जो कुछ भी मूर्ति मां जगत दिखाई देता है ज्ञान स्वरूप आप ही का रूप है।

और जितेंद्रिय लोग भ्रम से इसे जगत रूप देखते हैं।

इस संपूर्ण ज्ञान स्वरूप जगत को बुद्धि लोग अर्थ स्वरूप देखते हैं,अतः वे निरंतर मोहमय संसार सागर में भटका करते हैं।

हे परमेश्वर जो लोग शुद्ध चित्र और विज्ञान वेत्ता है, वह इस संपूर्ण संसारको आपका अज्ञात्मक स्वरूप ही देखते हैं। हे सर्व, हे सर्वात्मक प्रसन्न होइए।

हे आप्न में आत्मन हे कमल नयन संसार के निवास के लिए पृथ्वी का उद्धार करके हमको शांति प्रदान कीजिए। हे भगवान हे गोविंद इस समय आप सत्व प्रधान है।

अतः इष्ट जगत के उद्धव के लिए आप इस पृथ्वी का उद्धार कीजिए और है कमल नयन हमको शांति प्रदान कीजिए।

आपके द्वारा यह स्वर्ग की प्रवृत्ति संसार का उपकार करने वाली हो।

हे कमल नयन आपको नमस्कार है आप हमको शांति प्रदान कीजिए।

श्री पराशर जी बोले इस प्रकार स्तुति किए जाने पर पृथ्वी को धारण करने वाले परमात्मा वाराह जी ने इसे शीघ्र ही उठाकर अपार जल के ऊपर स्थापित कर दिया।

उसे जल समूह के ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौका के समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकर होने के कारण उसमें डूबती नहीं हैं ।

फिर उन अनादि परमेश्वर ने पृथ्वी को समतल कर उसपर जहां-तहां पर्वतों को विभाग करके स्थापित कर दिया।

सत्य संकल्प भगवान ने अपने अमोग प्रभाव से पूर्व कल्प के अंत में दगद हुए समस्त पर्वतों को पृथ्वी तल पर यथा स्थान रच दिया।

तदांतर उन्होंने सप्त द्वीपादी कर्म से पृथ्वी का यथायोग्य विभाग कर भूर लोक आदि चारों लोको की पूर्ववत कल्पना कर फिर उन्हें भगवान हरि ने रजोगुण से युक्त हो चतुर्मुख धारी ब्रह्म रूप धारण कर सृष्टि रचना की।

सृष्टि की रचना में भगवान तो केवल एकनिमित्त मात्र ही है क्योंकि श्रृज पदार्थ की शक्तियां है। ह

हे तपस्या में श्रेष्ठ मैत्रेय वस्तुओं की रचना में निमित्त मात्र को छोड़कर और किसी बात की आवश्यकता भी नहीं है।

क्योंकि वस्तु तो अपनी ही है परिमाण शक्ति से वस्तुतः अस्थलता को प्राप्त हो जाती है।

इस प्रकार से श्री विष्णु पुराण में प्रथम अंश में चौथे अध्याय की कथा पूर्ण हुई तो बोलिए प्रेम से भगवान विष्णु की जय माता लक्ष्मी की जय वाराह भगवान की जय सर्व देवी देवता की जय।

पढ़े विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 5 और 6

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ByAnushka Mishra
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