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Vat Savitri Vrat Katha: पढ़े सावित्री और सत्यवान की कथा | शिव आरती सहित

Anushka Mishra
Last updated: April 26, 2025 1:06 pm
By Anushka Mishra
16 Min Read
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वट सावित्री व्रत हिंदू धर्म में विवाहित महिलाओं के लिए बहुत ही शुभ और महत्वपूर्ण व्रत है। इस दिन महिलाएं वट (बरगद) के पेड़ की पूजा करती हैं, वट सावित्री व्रत कथा पढ़ती है और अपने पति की लंबी उम्र, स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।

Contents
वट सावित्री व्रत कथाशिव जी की आरती

वट सावित्री व्रत कथा में सावित्री द्वारा अपने तप, भक्ति और दृढ़ संकल्प से यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस पाने की कथा इस व्रत को विशेष महत्व देती है।

वट वृक्ष दीर्घायु, स्थायित्व और समृद्धि का प्रतीक है। यह व्रत वैवाहिक जीवन में प्रेम, समर्पण और विश्वास को मजबूत करने वाला माना जाता है।

आइये पढ़े वट सावित्री व्रत कथा।

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत कथा के अनुसार,मद्रदेश में अश्वपति नाम के परम ज्ञानी राजा थे। धन वैभव से पूर्ण होने पर भी वे संतान के अभाव में बड़े दुखी रहते थे। राजा ने पंडितों की सलाह से पुत्र प्राप्ति के लिए सावित्री की आराधना की। सावित्री ने प्रसन्न होकर राजा रानी को दर्शन देकर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है पर मैं स्वयं कन्या रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूंगी।

इतना कहकर सावित्री देवी अंतर्धान हो गई। कुछ समय बाद रानी के गर्भ से साक्षात सावित्री का जन्म हुआ। राजा रानी ने उसका नाम सावित्री ही रखा। सावित्री सर्वगुण संपन्न थी। वह चंद्रमा की कला के समान नित्य प्रति बढ़ने लगी।

जब वह विवाह के योग्य हुई तब माता-पिता ने उससे कहा कि अब तुम अपने योग्य मनचाहा वर खोज लो राजा ने उसे एक बूढ़े मंत्री के साथ वर खोजने के लिए भेज दिया। सावित्री यात्रा पर रवाना हो गई।

इधर एक दिन अचानक नारद जी मद्राराज अश्वपति से भेंट करने के लिए आए। तभी सावित्री भी अपने लिए व पसंद करके लौट आई। उसने आदर पूर्वक नारद जी को प्रणाम किया। नारद जी ने उसे विवाह योग्य देखकर राजा अश्वपति से पूछा कि आपने इसके योग्य वर खोजा है या नहीं।

राजा ने बताया कि मैं सावित्री को वर खोजने के लिए भेजा था। वह अभी लौट कर आई है और अब वही बताएगी कि उसने अपने पति रूप में किसे पसंद किया है। राजा की बात सुनकर नारद जी ने सावित्री से पूछा कि तुमने किस वर के साथ विवाह करने का निश्चय किया है।

सावित्री ने परम विनम्र हो हाथ जोड़कर निवेदन किया कि महाराज? राजा द्युमत्सेन का राज्य रुकमी ने छीन लिया है और वह अंधे होकर रानी के साथ वन में रहते हैं। उनके एकमात्र पुत्र सत्यवान को ही मैंने अपना पति बनाने का निश्चय किया है।

सावित्री ने ऐसा कहने पर नारद जी ने राजा अशोक पति से कहा कि आपकी कन्या ने वर खोजने में निसंदेह भारी परिश्रम किया है। सत्यवान गुणवान और धर्मात्मा है। वह रूपवान और समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है। वह अपने माता-पिता के समान सदा सत्य बोलने वाला है इसी कारण उसका नाम सत्यवान हुआ।

जिस प्रकार समुद्र रतन की राशि है उसी भांति सत्यवान सभी सद्गुणों का भंडार है। वह सब प्रकार से सावित्री के योग्य है। वह सब बातों में सावित्री के साथ क्षमता रखता है। इतना कुछ होते हुए भी उसमें एक भारी दोष है जिसके सामने यह सभी गुण फीके पड़ जाते हैं।

वह अल्प आयु है और एक वर्ष की समाप्ति पर उसकी मृत्यु हो जाएगी। नारद जी के मुख से यह वचन सुनकर राजा अशोक पति का चेहरा उदास हो गया और उनके मधुर स्वप्न नष्ट हो गए।

नारद जी के वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकते ऐसा विचार कर उन्होंने सावित्री को समझाया कि ऐसे क्षिणायु व्यक्ति के साथ विवाह करना कल्याणकारी नहीं है।

इसलिए कोई अन्य वर पसंद कर लो पिता की बात सुनकर सावित्री ने कहा कि अब मैं शारीरिक संबंध के लिए तो कभी मन में भी किसी अन्य पति के खोजने का विचार नहीं कर सकती।

कोई भी संकल्प पहले मन में आता है, फिर वाणी से कहा जाता है। कहने के पश्चात उसे करना ही होता है चाहे वह शुभ हो या अशुभ। मैंने जिसे एक बार अपने मन से पति स्वीकार कर लिया है वही मेरा पति होगा।

अब मैं किसी दूसरे का वरण किस प्रकार कर सकती हूं? राजा एक ही बार आज्ञा देता है,पंडित एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं और कन्यादान भी एक ही बार होता है, जैसा भी है अब मेरा पति है। मुझे उसके दीर्घायु या अल्पायु होने से कोई हर्ष विषाद नहीं है।

अब मैं पुरुष की तो बात ही क्या देवराज इंद्र को भी स्वीकार नहीं करूंगी। कोई शक्ति मुझे मेरे इस निश्चय से नहीं दिगा सकती। मैं पुनः दृढ़ता पूर्वक कहती हूं कि सत्यवान ही मेरा पति होगा।

सावित्री का ऐसा दृश्य संकल्प सुनकर नारद जी ने राजा अश्वपति को सम्मति दी कि तुम्हें सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ ही कर देना चाहिए। यही उचित प्रतीत होता है। इस प्रकार राजा को समझा बूझाकर नारद जी अपने स्थान को चले गए।

राजा अश्वपति ने भगवान के मंगलमय विधान में विश्वास करके विवाह की समस्त सामग्री इकट्ठे की और कन्या तथा बूढ़े मंत्री को साथ लेकर द्युमत्सेन की तपोभूमि में पहुंच गए। वहां पर राजा द्युमत्सेन अपनी रानी और राजकुमार सत्यवान के साथ रहते थे। अश्वपति ने उनके पास पहुंचकर अपना नाम बताते हुए उनके चरणों में प्रणाम किया।

द्युमत्सेन ने अश्वपति के आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि मेरी कन्या सावित्री ने आपके सुपुत्र सत्यवान के साथ विवाह करने का निश्चय किया है। मैं भी इससे सहमत होकर विवाह की तमाम सामग्री लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं।

राजा की बात सुनकर द्युमत्सेन उदास हो गए और उन्होंने कहा कि अब आप में और मुझ में कैसी समता। आप राज्यासीन राजा और मैं राज्य भ्रष्ट रंक। इस पर भी हम दोनों अंधे हैं निर्धन है और वन में रहते हैं। आपकी कन्या ने वन के भारी कष्टों को ना जानकर ही ऐसा विचार कर लिया है।

महाराज अश्वपति ने कहा कि सावित्री ने इन सब बातों पर भली प्रकार विचार कर लिया है। वह कहती है कि जहां मेरे सास ससुर और पतिदेव निवास करते हैं वही मेरे लिए बैकुंठ है। सावित्री के ऐसे दृढ़ निश्चय को सुनकर द्युमत्सेन ने विवाह की स्वीकृति दे दी।

शास्त्र सम्मत रीति से सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ करके राजा अश्वपति तो अपनी राजधानी को लौट गए और इधर सावित्री मनचाहे पति सत्यवान को पकड़ सुख पूर्वक वन में रहने लगी। नारद जी के वचन हर समय सावित्री के कानों में गूंजते रहते थे। वह एक-एक दिन गिन रही थी।

उसने जब पति की मृत्यु का दिन निकट आया तो तीन दिन पहले ही उसने उपवास आरंभ कर दिया। तीसरे दिन अपने पितरों का पूजन किया। वही दिन नारद जी ने सत्यवान की मृत्यु का बताया था।

रोज की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर कुल्हाड़ी और टोकरी लेकर लकड़ी काटने के लिए वन में जाने लगा तो सावित्री ने स्वयं भी उसके साथ चलने का आग्रह किया।

सत्यवान ने उसे माता-पिता की सेवा के लिए वही ठहरने की सम्मति दी। तब सावित्री अपने सास ससुर से सत्यवान के साथ वन में जाने की आज्ञा ले आई और उसके साथ वन को चलने की तैयारी की।

सत्यवान ने वन में पहुंचकर फल फूल तोड़े और बाद में लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष के ऊपर ही सत्यवान के सिर में भारी पीड़ा होने लगी। वह वृक्ष से नीचे उतर आया और सावित्री की जंघा पर अपना सिर रखकर लेट गया।

कुछ देर बाद सावित्री ने अनेक दूतों के साथ यमराज को हाथ में पाश लिए हुए देखा। पहले तो यमराज ने सावित्री को दैवी विधान कहकर सुनाया और फिर वह सत्यवान के अंगूष्ठ मात्र जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चले गए।

सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। जब बहुत दूर तक भी उसने यमराज का पीछा ना छोड़ा तो उन्होंने उससे कहा कि है पतिव्रते! जीस सीमा तक एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का साथ दे सकता है वहां तक तुमने पति का साथ दिया अब तुम घर लौट जाओ।

सावित्री ने कहा, धर्मराज- जहां मेरा पति जा रहा है वही मुझे भी जाना चाहिए यही सनातन धर्म है। पतिव्रत के प्रभाव और आपकी कृपा से कोई भी मेरी गति नहीं रोक सकता।

सावित्री के ऐसे धर्मपूर्ण वचन सुनकर यमराज ने प्रसन्न होकर उसे एक बार मांगने के लिए कहा।

सावित्री बोली कि मेरे सास ससुर वन में रहते हैं और अंधे हैं मैं आपसे यही मांगती हूं कि उन्हें दिखाई देने लगे। यमराज ने ‘ऐसा ही हो’ कहकर उसे पुनः लौट जाने की सलाह दी।

यमराज की बात सुनकर सावित्री ने कहा भगवन! जहां मेरे पतिदेव जाते हैं वहां उनके पीछे-पीछे चलने में मुझे भी कष्ट या परिश्रम नहीं है। पति परायण होना मेरा कर्तव्य है पूर्ण मेरा आप धर्मराज है। परम सज्जन है।

सत्य पुरुषों का समागम भी तो कुछ काम पुण्य का फल नहीं है। सावित्री के ऐसे धर्म युक्त और श्रद्धा पूर्ण वचन सुनकर यमराज ने फिर कहा, सावित्री! मैं तुम्हारे वचनों से बहुत प्रसन्न हूं तुम मुझे एक वरदान और मांग सकती हो।

सावित्री ने कहा-राजा द्युमत्सेन का राज्य छीन गया है। उसे वह पुनः प्राप्त करें और धर्म में उनकी सदैव प्रीति रहे- यही वरदान मुझे दीजिए। यमराज ने वरदान देकर पुनः उसको लौट जाने को कहा किंतु वह नमनी और बराबर पीछा करती रहे।

उसकी ऐसी दृढ पतिभक्ति देख यमराज ने प्रसन्न होकर उसे तीसरा वरदान देने की इच्छा प्रकट की। तब सावित्री ने अपने पुत्र कल की भलाई को दृष्टि में रखकर सौ भाई होने का वरदान मांगा। यमराज ने सहर्ष यह वरदान भी दिया।

सावित्री से पुनः आगे ना बढ़कर लौट जाने का आग्रह किया किंतु सावित्री अपने प्राण पर अडिग रही। सावित्री की ऐसी निष्ठा और दृढ़ संकल्प देखकर यमराज का हृदय पसिज गया।

वे बड़ी कोमल वाणी में बोले-हे सुव्रते तुम ज्यों ज्यों उत्तम धर्मयुक्त और गंभीर युक्तिपूर्ण वचन कहती हो त्यों त्यों मेरी प्रीति तुम पर बढ़ती जाती है।

अतः तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक और वरदान मुझे ले लो और अपने घर लौट जाओ। पहले तीनों वरदान पाकर सावित्री ने अपने श्वसूर कुल और पितृ कल दोनों का कल्याण कर दिया।

अब केवल अपनी ही भलाई का प्रश्न समझ थापा पूर्ण विरामपति पारायण नारी को अपने पति की आयु वृद्धि के अतिरिक्त और क्या फल कामना हो सकती है? यही सोच कर सावित्री ने सत्यवान से सौ पुत्र होने का वरदान मांगा।

सावित्री के ऐसे युक्ति पूर्ण वचन सुनकर यमराज बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उसे वरदान देते हुए सत्यवान को पाश से मुक्त कर दिया और कहा कि सत्यवान से तुम्हें निश्चय ही सौ पुत्र होंगे। सावित्री को मनवांछित वरदान दे का यमराज वही अंतर्धान हो गए और वह लौटकर वट वृक्ष के नीचे आई।

वट वृक्ष के नीचे सत्यवान का मृत शरीर पड़ा हुआ था। उसमें जीवन का संचार हो गया और वह उठकर बैठ गया। सावित्री ने सत्यवान से सारा वृतांत का सुनाया और फिर वे दोनों खुशी-खुशी आश्रम की ओर चले गए।

सत्यवान के माता पिता को दृष्टि प्राप्त हो गई थी और वह अपने आज्ञाकारी पुत्र और सेवा परायण पुत्रवधू को न देखकर अत्यंत दुखी हो रहे थे। तभी सावित्री और सत्यवान वहां पर पहुंच गए।

सारे देश में सावित्री के अनुपम पतिव्रता का समाचार फैल गया। प्राजजनों ने महाराज देवमाता सेन को ले जाकर आदर पूर्वक राज्य सिंहासन पर बैठाया।

सावित्री के पिता अश्वपति को भी सौ पुत्र प्राप्त हुए और सावित्री सत्यवान ने भी सौ पुत्र प्राप्त करके दीर्घायु तक राज्य होगा। अंत में बैकुंठ सुधारे।

प्रत्येक सौभाग्यवती स्त्री के लिए यह व्रत करना आवश्यक है।

।। वट सावित्री व्रत कथा समाप्त।।

सावित्री सत्यवान की कथा

वट सावित्री व्रत कथा पढ़ने के बाद आरती अवश्य ही गायें।

शिव जी की आरती

ॐ जय शिव ओंकारा स्वामी जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा॥
ऊं जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥
॥ ॐ जय शिव ओंकारा ॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।
नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

यह भी देखे: वट सावित्री व्रत की संपूर्ण जानकारी

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ByAnushka Mishra
An enthusiast author at Marg Darshan who holds the proficiency in the fields of Finance, Ethics and Sports.
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