शिव पुराण हिंदू धर्म के 18 महाग्रंथो में से एक है, आइये शिव पुराण विद्येश्वर संहिता के अध्याय 9 और 10 को पढ़े।
शिव पुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय 9
लिंग पूजन का महत्व
शिव पुराण के अनुसार,नंदीकेश्वर कहते हैं ब्रह्मा और विष्णु,भगवान को प्रणाम कर चुपचापउनके दाएं बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूछ लिया महादेव जी को श्रेष्ठ आसान पर बैठकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को पुष्प वस्तु तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को प्रकृति वस्तु कहते हैं।
हार, नूपुर, किरीट मणिमय, कुण्डल, यज्ञपवीत, वस्त्र, पुष्प माला, रेशमी वस्त्र, हार मुद्रिका,पुष्प, तांबूल,कपूर,चंदन एवं अग्र का अनुले धूप दीप श्वेत छत्र,व्यंजन, ध्वजा चंवर तथा अनेक दिव्या उपहार द्वारा जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था जो केवल परमात्मा के योग्य थे उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कुरा कर कहा पुत्र आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं।
इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान होगा यह तिथि शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परंपरिया होगी इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप किया मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करने पर मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है।
जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए मैं मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकलता है वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है।
इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाएतो इतना अधिक फल प्राप्त होता है की वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। लिंग रूप में प्रकट होकर मैं बहुत बड़ा हो गया था अतः लिंग के कारण यह भूतल लिंग स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सके इसके लिए यह अनाड़ी और अनंत ज्योति स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जाएगा। यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलह करने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है।
इसका दर्शन स्पर्श और ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है। शिवलिंग के यहां प्रकट होने के कारण यह स्थान अरुणाचल नाम से प्रसिद्ध होगा तथा यहां बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान पर रहने या मरने से जीवो को मोक्ष प्राप्त होगा। मेरे दो रूप है सरकार और निराकार पहले मैं स्तंभ रूप में प्रकट हुआ फिर अपने साक्षात रूप में ब्रह्म भाव मेरा निराकार रूप है। तथा महेश्वर भाव मेरा साक्षात रूप है। यह दोनों ही मेरे सिद्ध रूप है मैं ही परम ब्रह्म परमात्मा हूं। जीवो पर अनुग्रह करना मेरा कार्य है मैं जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण ब्रह्मा कहलाता हूं।
सर्वत्र स्थित होने के कारण मैं ही सबकी आत्मा हूं। स्वर्ग से लेकर अनुग्रह तक जो जगत संबंधी पांच कृत्य है वह सदा ही मेरे हैं। मेरी ब्रह्मा रूपता का बोध कराने के लिए पहले लिंग प्रकट हुआ फिर अज्ञात ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए मैं जगदीश्वर रूप में प्रकट हो गया। मेरा सकल रूप मेरे एशव का और निष्कल रूप मेरे ब्रह्म स्वरूप का बोध कराता है कौन मेरा लिंग मेरा स्वरूप है और मेरे सामिप्य की प्राप्ति करने वाला है।
मेरे लिंग की स्थापना करने वाले मेरे उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है। तथा मेरे साथ एकत्व का अनुभव करता हुआ संसार सागर से मुक्त हो जाता है। वह जीते जी परमानंद की अनुभूति करता हुआ शरीर का त्याग कर शिव लोक को प्राप्त होता है। अर्थात मेरा ही स्वरूप हो जाता है। मूर्ति की स्थापना लिंग की अपेक्षा गण है। उन भक्तों के लिए है जो शिव तत्व के अनुशीलन में सक्षम नहीं है।
विद्येश्वर संहिता का नौवा अध्याय संपन्न।
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अध्याय 10
प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता
शिव पुराण के अनुसार,ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा प्रभु सृष्टि आदि पांच कृतियों के लक्षण क्या है?यह हम दोनों को बताइए फोन में राम भगवान शिव बोले मेरे कर्तव्य को समझना अत्यंत गहन है तथापि में कृपा पूर्वक तुम्हें बता रहा हूं। सृष्टि,पालन, सहार, तिरोभाव और अनुग्रह मेरे जगत संबंधी पांच कार्य है जो नित्य सिद्ध है। संसार की रचना का आरंभ सृष्टि कहलाता है। मुझसे पालीत होकर सृष्टि का सुस्थिर रहना सृष्टि का पालन है।
उसका विनाश ही सहार है। प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा अनुग्रह अर्थात मोक्ष है। यह मेरे पांच कृत्य है। सृष्टि आदि कर कृत्य संसार का विस्तार करने वाले हैं,पांचवा कृत्य मोक्ष का है। मेरे भक्तजन इन पांच कार्यों को पांच भूतों में देखते हैं। सृष्टि धरती पर स्थित जल में, सहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सब की सृष्टि होती है, जल से वृद्धि होती है,आग सबको जला देती है, वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है, और आकाश सबको अनुग्रहित करता है।
इन पांचो कृतियों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख है। चार दिशाओं में चार मुख और उनके बीच में पांचवा मुख है। पुत्रों तुम दोनों ने मुझे तपस्या से प्रसन्न कर सृष्टि और पालन दो कार्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर ने शहर और तिरोभाव कार्य मुझे प्राप्त किए हैं, परंतु मोक्ष में स्वयं प्रदान करता हूं। मैंने पूर्व काल में अपने स्वरूप भूत मंत्र का उद्देश्य किया है जो ओमकार रूप में प्रसिद्ध है।
यह मंगलकारी मंत्र है। सर्वप्रथम मेरे मुख से ओमकार ओम प्रकट हुआ जो मेरे स्वरूप का बोध कराता है। इसका स्मरण निरंतर करने से मेरा ही सदस्य मरण होता है। मेरे उत्तरवर्ती मुख से आकार का, पश्चिम मुख से पुकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिंदु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्रकृति कारण हुआ है। इस प्रकार इन पांचो अवयतों से ओमकार का विस्तार हुआ है। इन पांचो अवयवों के एकाकर होने पर प्रणव ओम नामक अक्षर उत्पन्न हुआ।
जगत में उत्पन्न सभी स्त्री पुरुष इस मंत्र में व्याप्त है। यह मंत्र शिव शक्ति दोनों का बोधक है इसी से पंचाक्षर मंत्र ओम नमः शिवाय की उत्पत्ति हुई है। यह मेरे साकार रूप का बोधक है। इस पंचाक्षर मंत्र से मात्र का वर्णन प्रकट हुए हैं जो पांच भेद वाले हैं इसी से शिरो मंत्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्रकट्य हुआ है। इस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए और उन वेदों से करोड़ों मंत्र निकले हैं।उन मित्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है।
इस पंचाक्षर प्रभाव मंत्र से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं इस मंत्र से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। नंदीकेश्वर कहते हैं जगदंबा उमा गौरी पार्वती के साथ बैठे महादेव ने उतरवर्ती मुख बैठे ब्रह्मा और विष्णु को पर्दा करने वाले वस्त्र से आच्छादित कर उनके मस्तक पर अपना हाथ रखकर धीरे-धीरे उच्चारण कर उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश दिया। तीन बार मंत्र का उच्चारण करके भगवान शिव ने उन्हें शिष्यों के रूप में दीक्षा दी।
गुरु दक्षिणा के रूप में दोनों ने अपने हाथ को समर्पित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो जगतगुरु भगवान शिव की इस प्रकाश स्तुति करने लगे, ब्रह्मा विष्णु बोल प्रभु आपके सरकार और निराकार दो रूप है, आप तेज से प्रकाशित है,आप सबके स्वामी है,आप सर्वात्मा को नमस्कार है।
आप प्रणाम मंत्र के बताने वाले हैं तथा आप ही प्रणव लिंग वाले हैं। सृष्टि, पालन, सहार तिरोभाव और अनुग्रह आदि आपके ही कार्य है। आपके पांच मुख है आप ही परमेश्वर हैं। आप सबकी आत्मा हैं। ब्रह्मा हैं आपके गुण और शक्तिया अनंत हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।
इन पंक्तियों से स्तुति करते हुए गुरु महेश्वर को प्रसन्न कर ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया। महेश्वर बोले आद्रा नक्षत्र मैं चतुर्दशी को यदि इस प्रणव मंत्र का जाप किया जाए तो यह अक्षय फल देने वाला है। सूर्य की संक्रांति में महा आगरा नक्षत्र में एक बार किया प्रणव जप करोडो गुना जब का फल देता है।
मृगशिरा नक्षत्र का अंतिम भाग तथा पुनर्वसु का शुरू का भाग पूजा, होम और तर्पण के लिए सदा आद्रा के समान ही है।मेरे लिंग का दर्शन प्रातः काल अर्थात मध्यान्ह से पूर्व काल में करना चाहिए मेरे दर्शन पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि उत्तम है। पूजा करने वालों के लिए मेरी मूर्ति और लिंग दोनों समान है फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है।
मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है इसलिए मनुष्य को शिवलिंग का ही पूजन करना चाहिए लिंग का ओम मंत्र से और मूर्ति का पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवलिंग की स्वयं स्थापना करके या दूसरों से स्थापना करकर उत्तम द्रव्य से पूजा करने से मेरा पद सुलभ होता है पूर्ण व्यायाम इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव अंतर ध्यान हो गए।
विद्येश्वर संहिता का दसवां अध्याय संपन्न हुआ
शिव पुराण संपूर्ण “Video”
पढ़े अध्याय 11 और 12