शिव पुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय 17
” शिव पुराण के सत्रहवे अध्याय में प्रणव का माहात्म्य व शिवलोक के वैभव का वर्णन”
शिव पुराण विदेश्वर संहिता में ऋषि बोले :- महामुनि ! आप हमें ‘प्रणव मंत्र’ का माहात्म्य तथा ‘शिव’ की भक्ति-पूजा का विधान सुनाइए ।”प्रणव का माहात्म्य”सूत जी ने कहा :– महर्षियो! आप लोग तपस्या के धनी हैं तथा आपने मनुष्यों की भलाई के लिए बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है।
मैं आपको इसका उत्तर सरल भाषा में दे रहा हूं। ‘प्र’ प्रकृति से उत्पन्न संसार रूपी महासागर का नाम है। प्रणव इससे पार करने के लिए नौका स्वरूप है। इसलिए ओंकार को प्रणव की संज्ञा दी गई है।
प्र-प्रपंच, न— नहीं है, वः – तुम्हारे लिए । इसलिए ‘ओम्’ को प्रणव नाम से जाना जाता है अर्थात प्रणव वह शक्ति है, जिसमें जीव के लिए किसी प्रकार का भी प्रपंच अथवा धोखा नहीं है। यह प्रणव मंत्र सभी भक्तों को मोक्ष देता है। मंत्र का जाप तथा इसकी पूजा करने वाले उपासकों को यह नूतन ज्ञान देता है।
माया रहित महेश्वर को भी नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा के शुद्ध स्वरूप हैं। प्रणव साधक को नया अर्थात शिवस्वरूप देता है। इसलिए विद्वान इसे प्रणव नाम से जानते हैं, क्योंकि यह नव दिव्य परमात्म ज्ञान प्रकट करता है। इसलिए यह प्रणव है।प्रणव के दो भेद हैं— ‘स्थूल’ और ‘सूक्ष्म’।
‘ॐ’ सूक्ष्म प्रणव व ‘नमः शिवाय’ यह पंचाक्षर मंत्र स्थूल प्रणव है। जीवन मुक्त पुरुष के लिए सूक्ष्म प्रणव के जाप का विधान है क्योंकि यह सभी साधनों का सार है। देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंत्र का जाप, अर्थभूत परमात्म-तत्व का अनुसंधान करता है। शरीर नष्ट होने पर ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त करता है।
इस मंत्र का छत्तीस करोड़ बार जाप करने से मनुष्य योगी हो जाता है। यह अकार, उकार, मकार, बिंदु और नाद सहित अर्थात ‘अ’, ‘ऊ’, ‘म’ तीन दीर्घ अक्षरों और मात्राओं सहित ‘प्रणव’ होता है, जो योगियों के हृदय में निवास करता है। यही सब पापों का नाश करने वाला है।
‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति और ‘मकार’ इनकी एकता है।पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – पांच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि पांच विषय कुल मिलाकर दस वस्तुएं मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों का अनुष्ठान करते हैं वे प्रवृत्ति मार्गी कहलाते हैं तथा जो निष्काम भाव से शास्त्रों के अनुसार कर्मों का अनुष्ठान करते हैं वे निवृत्त मार्गी हैं।
वेद के आरंभ में तथा दोनों समय की संध्या वंदना के समय सबसे पहले उकार का प्रयोग करना चाहिए। प्रणव के नौ करोड़ जाप से पुरुष शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ जाप से पृथ्वी की, फिर इतने ही जाप से तेज की, फिर नौ करोड़ जाप से वायु की और फिर नौ-नौ करोड़ जाप से गंध की सिद्धि होती है।
ब्राह्मण सहस्र ओंकार मंत्रों का रोजाना जाप करने से प्रबुद्ध व शुद्ध योगी हो जाता है। फिर जितेंद्रिय होकर पांच करोड़ का जाप करता है तथा शिवलोक को प्राप्त होता है ।
क्रिया, तप और जाप के योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं। धन और वैभव से पूजा सामग्री एकत्र कर अंगों से नमस्कार आदि करते हुए इष्टदेव की प्राप्ति के लिए जो पूजा में लगा रहता है, वह क्रियायोगी कहलाता है।
पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता है एवं बाह्य इंद्रियों को जीतकर वश में करता है उसे तपोयोगी कहते हैं। सभी सद्गुणों से युक्त होकर सदा शुद्ध भाव से समस्त कार्य कर शांत हृदय से निरंतर जो जाप करता है, वह ‘जप योगी’ कहलाता है।
जो मनुष्य सोलह उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता है ।”जपयोग का वर्णन”ऋषियो! अब मैं तुमसे जपयोग का वर्णन करता हूं। सर्वप्रथम, मनुष्य को अपने मन को शुद्ध कर पंचाक्षर मंत्र ‘नमः शिवाय’ का जाप करना चाहिए।
यह मंत्र संपूर्ण सिद्धियां प्रदान करता है। इस पंचाक्षर मंत्र के आरंभ में ‘ॐ’ (ओंकार) का जाप करना चाहिए गुरु के मुख से पंचाक्षर मंत्र का उपदेश पाकर कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक साधक रोज एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इंद्रियों को वश में रखे, माता-पिता की सेवा करे, नियम से एक सहस्र पंचाक्षर मंत्र का जाप करे तभी उसका जपयोग शुद्ध होता है।
भगवान शिव का निरंतर चिंतन करते हुए पंचाक्षर मंत्र का पांच लाख जाप करे। जपकाल में शिवजी के कल्याणमय स्वरूप का ध्यान करे। ऐसा ध्यान करे कि भगवान शिव कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक गंगाजी और चंद्रमा की कला से सुशोभित है।
उनकी बाईं ओर भगवती उमा विराजमान हैं। अनेक शिवगण वहां खड़े होकर उनकी अनुपम छवि को निहार रहे हैं। मन में सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए सूर्यमंडल से पहले उनकी मानसिक पूजा करे। पूर्व की ओर मुख करके पंचाक्षर मंत्र का जाप करे। उन दिनों साधक शुद्ध कर्म करे तथा अशुद्ध कर्मों से बचा रहे ।
जाप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को शुद्ध होकर शुद्ध हृदय से बारह सहस्र जाप करे। तत्पश्चात ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात के प्रतीक स्वरूप पांच शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण कर, शिव का पूजन विधिपूर्वक कर होम प्रारंभ करें।
विधि-विधान से भूमि को शुद्ध कर वेदी पर अग्नि प्रज्वलित करे। गाय के घी से ग्यारह सौ अथवा एक हजार आहुतियां स्वयं दे या एक सौ आठ आहुतियां ब्राह्मण से दिलाए । दक्षिणा के रूप में एक गाय अथवा बैल देना चाहिए। प्रतीकरूप पांच ब्राह्मणों के चरणों को धोए तथा उस जल से मस्तक को सींचे।
ऐसा करने से अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान का फल प्राप्त होता है। इसके उपरांत ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराकर देवेश्वर शिव से प्रार्थना करे। फिर पांच लाख जाप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है।
पुनः पांच लाख जाप करने पर, भूतल से सत्य लोक तक चौदह भुवनों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।”कर्म माया और ज्ञान माया का तात्पर्य”मां का अर्थ है लक्ष्मी उससे कर्मभोग प्राप्त होता है। इसलिए यह माया अथवा कर्म माया कहलाती है। इसी से ज्ञान-भोग की प्राप्ति होती है।
इसलिए उसे माया या ज्ञानमाया भी कहा गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग । नश्वर भोग में जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करता हुआ विभिन्न योनियों व लोकों के चक्कर काटता है। बिंदु पूजा में तत्पर रहने वाले उपासक नीचे के लोकों में घूमते हैं।
निष्काम भाव से शिवलिंग की पूजा करने वाले ऊपर के लोक में जाते हैं। नीचे कर्मलोक है और यहां सांसारिक जीव रहते हैं। ऊपर ज्ञानलोक है जिसमें मुक्त पुरुष रहते हैं और आध्यात्मिक उपासना करते हैं।
“शिवलोक के वैभव का वर्णन”जो मनुष्य सत्य अहिंसा से भगवान शिव की पूजा में तत्पर रहते हैं, कालचक्र को पार कर जाते हैं। काल चक्रेश्वर की सीमा तक महेश्वर लोक है। उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है।
उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया चार पाद हैं। वह साक्षात शिवलोक के द्वार पर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं। वह वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित है। भक्ति उसके नेत्र व विश्वास और बुद्धि मन क्रिया आदि धर्मरूपी वृषभ हैं, जिस पर शिव आरूढ़ होते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आयु को दिन कहते हैं। कारण स्वरूप ब्रह्मा के सत्यलोक पर्यंत चौदह लोक स्थित हैं, जो पांच भौतिक गंध से परे हैं। उनसे ऊपर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक हैं तथा इससे ऊपर कारणरूपी रुद्र के अट्ठाईस लोकों की स्थिति है। फिर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं।
सबसे ऊपर पांच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलाश है, जहां पांच मंडलों, पांच ब्रह्मकालों और आदि शक्ति से संयुक्त आदिलिंग है, जिसे शिवालय कहा जाता है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि कार्यों में कुशल हैं।
नित्य कर्मों द्वारा देवताओं का पूजन करने से शिव-तत्व का साक्षात्कार होता है। जिन पर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त हो जाते हैं। अपनी आत्मा में आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का साधन है।
जो पुरुष क्रिया, तप, जाप, ज्ञान और ध्यान रूपी धर्मों से शिव का साक्षात्कार करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, उसके अज्ञान को भगवान शिव दूर कर देते हैं।”शिवभक्ति का सत्कार”साधक पांच लाख जाप करने के पश्चात भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए महाभिषेक एवं नैवेद्य से शिव भक्तों का पूजन करे ।
भक्त की पूजा से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव भक्त का शरीर शिवरूप ही है। जो शिव के भक्त हैं और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं, वे जितना अधिक शिवमंत्र का जाप करते हैं, उतना ही शिव का सामीप्य बढ़ता है। शिवभक्त स्त्री का रूप पार्वती देवी का है तथा मंत्रों का जाप करने से देवी का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है।
साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति अर्थात पार्वती का पूजन शक्ति, बेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी से इनकी आकृति का निर्माण करके, प्राण प्रतिष्ठा कर इसका पूजन करे।
शिवलिंग को शिव मानकर अपने को शक्ति रूप समझकर शक्ति लिंग को देवी मानकर पूजन करे शिवभक्त शिव मंत्र रूप होने के कारण शिव के स्वरूप है।
जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। उपासना के उपरांत शिव भक्त की सेवा से विद्वानों पर शिवजी प्रसन्न होते हैं।
पांच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तों को बुलाकर आदरपूर्वक भोजन कराए। शिव भावना रखते हुए निष्कपट पूजा करने से भूतल पर फिर जन्म नहीं होता।
।।शिव पुराण विदेश्वर संहिता अध्याय 17 संपन्न हुआ।।
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अध्याय 18
” शिव पुराण के अठाहरवे अध्याय में जाने बंधन और मोक्ष का विवेचन शिव के भस्मधारण का रहस्य”
श्री शिव पुराण में ऋषि बोले :- सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूत जी! बंधन और मोक्ष क्या है? कृपया हम पर कृपा कर हमें बताएं?सूत जी ने कहा :- महर्षियो! मैं बंधन और मोक्ष के स्वरूप व उपाय का वर्णन तुम्हारे लिए कर रहा हूं।
पृथ्वी के आठ बंधनों के कारण ही आत्मा की जीव संज्ञा है। अर्थात बंधनों में बंधा हुआ जीव ‘बद्ध’ कहलाता है और जो उन बंधनों से छूटा हुआ है उसे ‘मुक्त’ कहते हैं।
प्रकृति, बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार और पांच तन्मात्राएं आदि आठ तत्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है। देह से कर्म होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से जानना चाहिए।
स्थूल शरीर व्यापार कराने वाला, सूक्ष्म शरीर इंद्रिय भोग प्रदान करने वाला तथा शरीर को आत्मानंद की अनुभूति कराने वाला होता है। कर्मों के द्वारा ही जीव पाप और पुण्य भोगता है। इन्हीं से सुख-दुख की प्राप्ति होती है ।
अतः कर्मपाश में बंधकर जीव शुभाशुभ कर्मों द्वारा चक्र की भांति घुमाया जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए महाचक्र के कर्ता भगवान शिव की स्तुति और आराधना करनी चाहिए। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण और अनंत शक्तियों को धारण किए हैं।
जो मन, वचन, शरीर और धन से बेरलिंग या भक्तजनों में शिव भावना करके उनकी पूजा करते हैं, उन पर शिवजी की कृपा अवश्य होती है।
शिवलिंग में शिव की प्रतिमा ने शिव भक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिए पूजा करनी चाहिए। पूजन शरीर, मन, वाणी और धन से कर सकते हैं। भगवान शिव पूजा करने वाले पर विशेष कृपा करते हैं और अपने लोक में निवास का सौभाग्य प्रदान करते हैं।
जब तन्मात्राएं वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदंबा सहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान का प्रसाद प्राप्त होने पर बुद्धि वश में हो जाती है । सर्वज्ञता और तृप्ति शिव के ऐश्वर्य हैं। इन्हें पाकर मनुष्य की मुक्ति हो जाती है।
इसलिए शिव का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए उन्हीं का पूजन करना चाहिए। शिवक्रिया, शिव तप, शिवमंत्र जाप, शिवज्ञान और शिव ध्यान प्रतिदिन प्रातः से रात को सोते समय तक, जन्म से मृत्यु तक करना चाहिए एवं मंत्रों और विभिन्न पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए।
ऐसा करने से भगवान शिव का लोक प्राप्त होता है। ऋषि बोले :– उत्तम व्रत का पालन करने वाले सूत जी! शिवलिंग की पूजा कैसे करनी चाहिए? कृपया हमें बताइए?सूत जी ने कहा :- ब्राह्मणो! सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले लिंग के स्वरूप का मैं तुमसे वर्णन कर रहा हूं।
सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूल लिंग सकल। पंचाक्षर मंत्र को स्थूल लिंग कहते हैं। दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देने वाले हैं। प्रकृति एवं पौरुष लिंग के रूपों के बारे में एकमात्र भगवान शिव ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। पृथ्वी पर पांच लिंग हैं, जिनका विवरण मैं तुम्हें सुनाता हूं।
शिव पुराण के अनुसार पहला ‘स्वयंभू शिवलिंग’, दूसरा ‘बिंदुलिंग’, तीसरा ‘प्रतिष्ठित लिंग’, चौथा ‘चरलिंग’, और पांचवां ‘गुरुलिंग’ है। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिए पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप में व्याप्त हुए भगवान शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को भेदकर ‘नादलिंग’ के रूप में व्यक्त हो जाते हैं।
स्वतः प्रकट होने के कारण ही इसका नाम ‘स्वयंभूलिंग’ है। इसकी आराधना करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। सोने-चांदी, भूमि, वेदी पर हाथ से प्रणव मंत्र लिखकर भगवान शिव की प्रतिष्ठा और आह्वान करें तथा सोलह उपचारों से उनकी पूजा करें। ऐसा करने से साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिए ‘पौरुष लिंग’ की स्थापना मंत्रों के उच्चारण द्वारा की है। यही ‘प्रतिष्ठित लिंग’ कहलाता है।
किसी ब्राह्मण अथवा राजा द्वारा मंत्रपूर्वक स्थापित किया गया लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है, किंतु वह ‘प्राकृत लिंग’ है।
शक्तिशाली और नित्य होने वाला ‘पौरुष लिंग’ तथा दुर्बल और अनित्य होने वाला ‘प्राकृत लिंग’ कहलाता है।लिंग, नाभि, जीभ, हृदय और मस्तक में विराजमान आध्यात्मिक लिंग को ‘चरलिंग’ कहते हैं।
पर्वत को ‘पौरुष लिंग’ और भूतल को विद्वान ‘प्राकृत लिंग’ मानते हैं। पौरुष लिंग समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाला है। प्राकृत लिंग धन प्रदान करने वाला है। ‘चरलिंग’ में सबसे प्रथम ‘रसलिंग’ ब्राह्मणों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है।
‘सुवर्ण लिंग’ वैश्यों को धन, ‘बाणलिंग’ क्षत्रियों को राज्य, ‘सुंदर लिंग’ शूद्रों को महाशुद्धि प्रदान करने वाला है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे में स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करने वाला है।समस्त पूजा कर्म गुरु के सहयोग से करें । इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के चावल की बनी खीर तथा नैवेद्य अर्पण करें।
निवृत्त मनुष्य को ‘सूक्ष्म लिंग’ का पूजन विभूति के द्वारा करना चाहिए। विभूति लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित तीन प्रकार की होती हैं। लोकाग्निजनित अर्थात लौकिक भस्म को शुद्धि के लिए रखें।
मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की धान्य, तिल, वस्त्र आदि की भस्म से शुद्धि होती है। वेदों से जनित भस्म को वैदिक कर्मों के अंत में धारण करना चाहिए। मूर्तिधारी शिव का मंत्र पढ़कर बेल की लकड़ी जलाएं।
कपिला गाय के गोबर तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलताश और बेर की लकड़ियों से अग्नि जलाएं, इसे शुद्ध भस्म माना जाता है। भगवान शिव ने अपने गले में विराजमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से सारतत्व को ग्रहण किया है। उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के सार रूप हैं।
भगवान शिव ने अपने माथे के तिलक में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के सारतत्व को धारण किया है। सजल भस्म को धारण करके शिवजी की पूजा करने से सारा फल मिलता है। शिव मंत्र से भस्म धारण कर श्रेष्ठ आश्रमी होता है।
शिव की पूजा अर्चना करने वाले को अपवित्रता और सूतक नहीं लगता। गुरु शिष्य के राजस, तामस और तमोगुण का नाश कर शिव का बोध कराता है। ऐसे गुरु के हाथ से भस्म धारण करनी चाहिए। जन्म और मरण सब भगवान शिव ने ही बनाए हैं, जो इन्हें उनकी सेवा में ही अर्पित कर देता है, वह बंधनों से मुक्त हो जाता है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण को वश में कर लेने से मोक्ष प्राप्त होता है। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, मौन रहे, सत्य तथा गुणों से युक्त हो, क्रिया, जाप, तप करता रहे, उसे दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा ज्ञान का उदय होता है।
शिवभक्त यथायोग्य क्रिया एवं अनुष्ठान करें तथा धन का उपयोग कर शिव स्थान में निवास करें। भगवान शिव के माहात्म्य का सभी के सामने प्रचार करें। शिव मंत्र के रहस्य को उनके अलावा कोई नहीं जानता है, इसलिए शिवलिंग का नित्य पूजन करें।
।। शिव पुराण विदेश्वर संहिता अठारहवा अध्याय संपन्न हुआ।।
सम्पूर्ण शिव पुराण