कामदा एकादशी की कथा
एक समय की बात है जब भगवान श्री कृष्णा और युधिष्ठिर महाराज के बीच संवाद हो रहा था। युधिष्ठिर महाराज ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि केशव आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें और कृपया करके मुझे चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी, कामदा एकादशी के विषय में बताएं।
युधिष्ठिर महाराज की बात सुनकर श्री कृष्ण ने उत्तर दिया प्रिय अर्जुन महाराज, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली इस एकादशी को कामदा एकादशी कहते हैं।
इस एकादशी का पालन करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, और व्रत का पालन करने वालों को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने कामदा एकादशी की कथा कहना प्रारम्भ किया।
अनेक वर्षों पूर्व रत्नपूर नामक गंधर्व और किन्नर के राज्य में उनके राजा पुंडरी निवास करते थे।
गंधर्व और किन्नर के इस राज्य में सुख समृद्धि और प्रसन्नता का वास था।
इस राज्य में एक श्रेष्ठ अप्सरा ललिता अपने पति गंधर्व ललित के साथ रहती थी।
वह दोनों सदा एक दूसरे के प्रेम में लीन रहते थे।
एक दिन गंधर्व ललित राजा पूंडरी की सभा में नृत्य और गायन प्रस्तुत कर रहा था।
परंतु उसके साथ उसकी प्रिय पत्नी ललिता नहीं थी।
नाचते और गाते उसे ललिता की याद आ गई और उसके पैरों की गति धीमी हो गई और उसकी जीभ लड़खड़ाने लगी।
तब सभा में उपस्थित नागराजो के श्रेष्ठ करकोटक नमक नाग को ललित के मन का संताप हो गया।
उसने राजा पुंडरी को ललित के पैरों की गति रुकने व गायन में गलती होने की बात बता दी।
करकोटक की बात सुनकर राजा पुंडरी को गुस्सा आ गया। गुस्से में भरकर राजा पुंडरी ने ललित को श्राप दे दिया।
हे मूर्ख तू मेरे सामने गायन प्रस्तुत करते हुए अपनी पत्नी को याद कर रहा है, मैं तुम्हें नरभक्षी रक्षा बनने का श्राप देता हूं।
राजा पुंडरी के ऐसा कहते ही ललित विशाल का रक्षा में बदल गया।
उसका विशाल रूप विकराल आंखें जिन्हें देखने मात्र से भय उत्पन्न हो जाता था।
ऐसा रक्षा होकर वह अपने कर्मों का फल भुगतने लगा। जब उसकी प्यारी पत्नी को यह बात का पता चला तब वह बहुत दुखी हुई।
ललिता अपने पति की विकराल आकृति देखकर मनी मन सोचने लगी क्या करूं कहां जाऊं मेरा पति बहुत कष्ट भुगत रहा है।
वह रोती हुई जंगलों में अपने पति के पीछे-पीछे घूमने लगी। जंगलों में घूमते घूमते उसे एक सुंदर आश्रम दिखाई दिया।
आश्रम में ही एक शांत मुनि बैठे हुए थे। ललित शीघ्र ही उनके पास गई और मुनि को प्रणाम करके उनके पास खड़ी हो गई।
इस दुखी नारी को देखकर मुनि बोले तुम कौन हो और यहां कैसे आई हो?
ललिता ने जवाब दिया है महामुनि मेरा नाम ललिता है । मेरे स्वामी ललित अपने पापदुशो के कारण रक्षा बन गए हैं और घने जंगलों में भटक रहे हैं।
उनकी यह अवस्था मुझे अच्छी नहीं जाती आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं इसके प्रभाव से मेरे पति को राक्षस योनि से छुटकारा मिलेगा।
मुनिवर बोली है पुत्री इस वक्त चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी कामदा नामक एकादशी है।
यह एकादशी सभी पापों को हरने वाली है और अति उत्तम है।
तुम कामदा एकादशी का विधि पूर्वक व्रत करो और व्रत का पुण्य अपने स्वामी को प्रदान करो।
पुण्य देने पर क्षण भर में ही उसके सारे दोष मुक्त हो जाएंगे । मुनि के इस प्रकार कहने पर ललित ने विधिपूर्वक कामदा एकादशी का व्रत व पूजन किया।
पूजन करने के बाद वह उन्हें ब्रह्म ऋषि के समीप गई और अपने पति के उधर के लिए यह वचन कहने लगी।
मैंने जो यह काम था एकादशी का व्रत किया है इसके पुण्य के प्रभाव से मेरे पति को राक्षस योनि से मुक्ति मिल जाए।
ललिता के ऐसा कहते ही ललित के क्षण भर में ही सारे पाप मुक्त हो गए ।
उसने पुनः अपने दिव्य देह को धारण कर लिया।
वह दोनों पति-पत्नी कामदा एकादशी के व्रत के प्रभाव से पहले की अपेक्षा और भी अधिक सुंदर रूप धारण कर कर स्वर्ग को प्राप्त हुए।
हे धर्मराज युधिष्ठिर मैंने संसार के हित के लिए आपके सामने इस व्रत का वर्णन किया है।
कामदा एकादशी ब्रह्म हत्या आदि पापों से मुक्ति प्रदान करने वाली है।
राजन कामदा एकादशी की कथा को पढ़ने सुनने से पंचमय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
।। कामदा एकादशी की कथा संपन्न हुई।।
।। जय श्री हरि विष्णु।।
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विष्णु जी की आरती
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी ! जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥
ॐ जय जगदीश हरे।
जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का।
स्वामी दुःख विनसे मन का।
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥
ॐ जय जगदीश हरे।
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ मैं किसकी।
स्वामी शरण गहूँ मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥
ॐ जय जगदीश हरे।
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स्वामी तुम अन्तर्यामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥
ॐ जय जगदीश हरे।
तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता।
स्वामी तुम पालन-कर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥
ॐ जय जगदीश हरे।
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
स्वामी सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमति॥
ॐ जय जगदीश हरे।
दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
स्वामी तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥
ॐ जय जगदीश हरे।
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
स्वमी पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा॥
ॐ जय जगदीश हरे।
श्री जगदीशजी की आरती, जो कोई नर गावे।
स्वामी जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख संपत्ति पावे॥
ॐ जय जगदीश हरे।
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