विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 5
इस अध्याय में अविद्यादी विविध सरगों का वर्णन किया गया है। आई पढ़ते हैं विष्णु पुराण प्रथम अंश पांचवा अध्याय की कथा तो बोलिए प्रेम से भगवान विष्णु की जय। माता लक्ष्मी की जय। सर्व देवी देवताओं की जय।
श्री मैत्रेय जी बोले की हे द्विगराज स्वर्ग के आदि में भगवान ब्रह्मा जी ने पृथ्वी आकाश और जल आदि में रहने वाले देव, ऋषि, पितृ गण, दानव मनुष्य तिर्यक और वृक्ष आदि को जिस प्रकार रचा तथा जैसे गुण स्वभाव और रूप वाले जगत की रचना की वह सब आप मुझे कहिए।
श्री पराशर जी बोले, है मैत्रेय भगवान विभु ने भी जिस प्रकार इस सर्ग की रचना की वह मैं तुमसे कहता हूं। तुम सावधान होकर सुनो सर्ग के आदि में ब्रह्मा जी के पूर्ववत सृष्टि का चिंतन पहले अबुद्धि पूर्वक अर्थात पहले पहल और सावधानी हो जाने से तमोगुण सृष्टि का आविर्भाव हुआ।
उसे महात्मा से प्रथम तम यानी कि अज्ञान मोह, महामोह यानी भोग इच्छा, तामिस्र यानी क्रोध और अंधता मिस्त्र यानी कि अभीनिवेश नमक पांचप्रवा पांच प्रकार की अविद्या उत्पन्न हुई।
उसके ध्यान करने पर ज्ञान शून्य बाहर भीतर से तमों में और जड़ नागा आदि यानी की वृक्ष गुल्म, लता, रुत, रूप पांच प्रकार का सर्ग हुआ।
वाराह जी द्वारा सर्वप्रथम स्थापित होने के कारण नागा आदि को मुख्य कहां गया है इसलिए यह सर्ग की भी मुख्य सर्ग कहलाता है।
उसे सृष्टि को पुरुषार्थ की असाधिका कहकर अन्य स्वर्ग के लिए ध्यान किया। जिससे तिर्यक स्रोत सृष्टि उत्पन्न हुई। यह सर्ग वायु के समान तिरछा चलने वाला है।
इसलिए का स्रोत कहलाता हैं। यह पशु पक्षी आदि नाम से प्रसिद्ध है और प्रयाग तमो में यानी कि अज्ञानी विवेक रहित अनुचित मार्ग का अवलंबन करने वाले और विपरीत ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान मानने वाले होते हैं।
यह सब अहंकारी अभिमानी 28 वादों से युक्त आंतरिक सुख आदि ही पूर्णतया समझने वाले और परस्पर एक दूसरे की प्रवृत्ति न जानने वाले होते हैं। उसे स्वर्ग को पुरुषार्थ आसाधक समझ पुनः चिंतन करने पर एक और सर्ग हुआ।
वह उद्धव स्रोत नमक तीसरा सात्विक सर्ग ऊपर के लोक में रहने लगा वह उद्धव स्रोत सृष्टि से उत्पन्न हुए प्राणी विषय सुख के प्रेमी बाह्या और आंतरिक दृष्टि संपन्न तथा ब्राह्मी और आंतरिक ज्ञान युक्त थे।
यह तीसरा देवसर्ग कहलाता है। इस स्वर्ग के प्रदुर्भाव होने पर संतुष्ट चित्र ब्रह्मा जी को अति प्रसन्नता हुई फिर इन मुख्य स्वर्ग आदि तीनों प्रकार की सृष्टि में उत्पन्न हुए पूर्ण प्राणियों को पुरुषार्थ का और साधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधन सर्ग के लिए चिंतन किया, उन, सत्य संकल्प ब्रह्मा जी के इस प्रकार चिंतन करने पर अव्यक्त यानी की प्रकृति से पुरुषार्थ का साधक अवाक स्रोत नमक सर्ग प्रकट हुआ।
इस सर्ग के प्राणी नीचे पृथ्वी पर रहते हैं इसलिए वे अर्वाक स्त्रोत। उन में सत्व रज और तुम तीनों की ही अधिकता होती है।वे दुख बहुल अत्यंत क्रियाशील व ब्रह्मय अभ्यातर ज्ञान से युक्त है। इस स्वर्ग के प्राणी मनुष्य है है मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार अब तक तुमसे छह स्वर्ग कहे उसमें महत्व को ब्रह्मा का पहला सर्ग जानना चाहिए।
दूसरा स्र्ग तन मात्राओं कहां है जिसे भूत सर्ग भी कहते हैं। और तीसरा वैचारिक सर्ग है जो इंद्रिय संबंधी कहलाती है। इस प्रकार दूर बुद्धि पूर्वक उत्पन्न हुआ यह प्राकृतिक सर्ग हुआ ।
चौथा मुख्य सर्ग है पर्वत वृक्ष आदि स्थावर ही मुख्य सर्ग के अंतर्गत है। पांचवा जो त्रय स्रोत बतलाया है उसे त्रय कीट पतंग आदि योनी भी कहते हैं। छठ सर्ग उधर अस्त्रताव का है जो देवसर्ग कहलाता है उसके पश्चात सातवां स्वर्ग अर्वाक अस्तुपराओ का है वह मनुष्य सर्ग है।
आठवां अनुग्रह सर्ग है वह सात्विक और तामसिक है यह पांच वैकृत विकारी सर्ग है और पहले तीन प्राकृतिक सर्ग कहलाते हैं। नवा कौमार्ग सर्ग है, जो प्रकृति और वकृत भी है।
इस प्रकार सृष्टि रचना में प्रवित्त हुए जगदीश्वर प्रजापति प्रकृति और वैकृत नामक यह जगत के मूलभूत नौसर्ग तुमसे सुनाया अब और क्या सुनना चाहते हो? श्री मैत्रेय जी बोले की हे मुने आपने इन देवादियों के सरगों का संक्षेप में वर्णन किया।
अब हे मुनिश्रेष्ठ में उन्हें अपने मुखारविंद से विस्तार पूर्वक सुनना चाहता हूं। श्री पराशर जी बोले की है मैत्री संपूर्ण प्रजा अपने पूर्व शुभा-शुभ कर्मों से युक्त है। अतः प्रलय काल में सब का लय होने पर भी वह उनके संस्कारों से मुक्त नहीं होते।
हे ब्राह्मण ब्रह्मा जी के सृष्टि कर्म में प्रवित्त होने पर देवताओं से लेकर स्थावर पर्वत चार प्रकार की सृष्टि हुई यह केवल मन में थी फिर देवता, असुर, पितृगन और मनुष्य इन चारोंकी तथा जल की सृष्टि करने की इच्छा से उन्होंने अपने शरीर का उपयोग किया।
सृष्टि रचना के कामना से प्रजापति के युक्त चित्त होने पर तमोगुण की वृद्धि हुई अतः सबसे पहले उनकी जगह से असुर उत्पन्न हुए तब हे मैत्रेय उन्होंने उन तमोमय शरीर को छोड़ दिया वह छोड़ा हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ फिर अन्य डे में स्थित होने पर सृष्टि की कामना वाले उन प्रजापति को अती प्रसन्नता हुई और उनके मुख से सत्व प्रधान देवगण उत्पन्न हुए, तब उसे शरीर को भी उन्होंने त्याग दिया वह त्याग हुआ शरीर सत रूप दिन हुआ इसलिए रात्रि में असुर बलवान होते हैं और दिन में देव गानों का बल विशेष होता है।
फिर उन्होंने आंशिक सत्व में अन्य शरीर ग्रहण किया और अपने को पित्राबाद मानते हुए अपने पासर्व भाग से पितृगण की रचना की।
पितृ गण की रचना कर उन्होंने उसे शरीर को भी छोड़ दिया । वह त्याग हुआ शरीर ही दिन और रात्रि के बीच में स्थित संध्या हुई। तत्पश्चात उन्होंने आंशिक राजो में अन्य शरीर धारण किया। है द्विज श्रेष्ठ उससे रज प्रधान मनुष्य उत्पन्न हुआ।
फिर शीघ्र ही प्रजापति ने वह शरीर भी त्याग दिया वही जो सना हुआ जिसे पूर्व संध्या अर्थात प्रातः काल कहते हैं इसलिए ही मैत्रेय प्रातः काल होने पर मनुष्य और स्वयं कल के समय पीटर बलवान होते हैं इस प्रकार रात्रि दिन प्रातः काल और सायं का ल यह चारों प्रभु ब्रह्मा जी के ही शरीर है और तीनों गुना के आश्रय है फिर ब्रह्मा जी ने एक और रजो मातृम शरीर धारण किया उसके द्वारा ब्रह्मा जी से सुधा उत्पन्न हुई और सुधा से काम की उत्पत्ति हुई तब भगवान प्रजापति ने अंधकार में स्थित होकर सुधाग्रस्त सृष्टि की रचना की उसमें बड़े कुरूप और दाढ़ी मूछ वाले व्यक्ति उत्पन्न हुए वे स्वयं ब्रह्मा जी की ओर ही उन्हें भक्षण करने के लिए दौड़े। उनमें से जिन्होंने यह कहा कि ऐसा मत करो इनकी रक्षा करो वे रक्षा कहलाए और जिन्होंने कहा हम कहेंगे वह खाने की वासना वाले होने से यक्ष कहे गए इस अनिष्ट प्रवृत्ति को देखकर ब्रह्मा जी के केश सर से गिर गए और फिर पुनः उनके मस्तक पर आरूढ़ हुए।
इस प्रकार ऊपर चढ़ने के कारण वह सर्प कहलाए और नीचे गिरने के कारण अही कह गए तदनंतर जगत रचयिता ब्रह्मा जी ने क्रोधित होकर क्रोध युक्त प्राणियों की रचना की वह कपीश कालापन लिए पीले वर्ण के अती उग्र स्वभाव वाले तथा मांसाहारी हुए। फिर गान करते समय उनके शरीर से तुरंत ही गंधर्व उत्पन्न हुए।
हे द्विज वे वाणी का उच्चारण करते अर्थात बोलते हुए उत्पन्न हुए थे। इसलिए गंधर्व कहलाए। इन सब की रचना करके भगवान ब्रह्मा जी ने पक्षियों को उनके पूर्व कर्मों से प्रेरित होकर स्वच्छंदता पूर्वक अपनी आयु से रचा।
तदनंतर अपने वक्षा स्थल से भेड़,मुख से बकरी उधर और पासर्व भाग से गौ, पैरों से घोड़े, हाथी,गधे,वन गाय मृग ऊंट खच्चर और नयंक आदि पशुओं की रचना की उनके रूपों से फल मूल रूप औषधिया उत्पन्न हुई। हे दुयोत्तम कल्प के आरंभ में ही ब्रह्मा जी से पशु और औषधीय उत्पन्न हुई उनके रोमो से फल मूल रूप औषधीय उत्पन्न हुई।
हे दुयोत्तम कल्प के आरंभ में ही ब्रह्मा जी ने पशु और औषधि की रचना करके फिर त्रेता युग में आरंभ में उन्हें यज्ञ आदि कर्मों में सम्मिलित किया। बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े खच्चर और गधे यह सब गांव में रहने वाले पशु है। जंगली पशु यह है स्यापक व्याघ आदि दो खुर वाले वन गाय आदि हाथी बंदर और पांचवें पक्षी साठे जल के जीव तथा सातवें सरी सृप आदि फिर अपने प्रथम यानी कि पूर्व मुख से ब्रह्मा जी ने गायत्री रिक त्रिवृत्त सोम रथन्तर और अग्नि स्टोम यज्ञ को निर्मित किया।
दक्षिण मुख से यजो त्राष्टप छंद पांच दश तोम वृहत साम तथा उकत की रचना की पश्चिम मुख से साम जगती छंद सप्त दश तोम रूप और अती रात को उत्पन्न किया तथा उत्तर मुख से उन्होंने एक विमशती स्तोम अर्थ वेद आपतोरिया मान अंशटुप छंद और बैराज की सृष्टि की इस प्रकार उनके शरीर से समस्त उच नीच प्राणियों की उत्पत्ति हुई।
उन आदि कर्ता प्रजापति भगवान ब्रह्मा जी ने देव असुर पितृ गण और मनुष्य की सृष्टि का तदांतर कल्प का आरंभ होने पर फिर यक्ष पिशाच गंधर्व अप्सरा गण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग और सर्प आदि संपूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जंगम जगत की रचना की उनमें से जिंक जैसे-जैसे कर्म पूर्व काल में थे पुनः पुनः सृष्टि होने पर उनकी उन्हें में फिर प्रवृत्ति हो जाती है।
उस समय हिंसा अहिंसा मृदता कठोरता धर्म aधर्म सत्य मिथ्या यह सब अपनी पूर्ण भावना के अनुसार उन्हें प्राप्त हुआ। इसी से यह उन्हें अच्छे लगते हैं। इस प्रकार विधाता ने ही स्वयं इंद्रियों के विषय भूत और शरीर आदि में विभिन्नता और व्यवहार को उत्पन्न किया है उन्होंने कल्प के आरम्भ मैं देवता आदि प्राणियों के वेदन अनुसार नाम और रूप तथा अन्य प्राणियों के भी वेदानुकूल नाम और यथायोग्य कर्मों को उन्हीं ने निर्दिष्ट किया है।
जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओं के पुनः पुनः आने पर उनके चिन्ह और नाम रूप आदि पूर्ववत रहते हैं उसी प्रकार युग में भी उनके पूर्व भाव भी देखे जाते हैं।
यथाशक्ति सृष्टि रचना की इच्छा रूप शक्ति से युक्त भी ब्रह्मा जी सज शक्ति सृष्टि के प्रारब्ध की प्रेरणा से कल्प के आरंभ में बारंबार इसी प्रकार सृष्टि की रचना किया करते हैं।
इस प्रकार से श्री विष्णु पुराण प्रथम अंश में पांचवें अध्याय की कथा संपन्न हुई।

अध्याय 6
इस अध्याय में चातुर्य वर्ण व्यवस्था पृथ्वी विभाग और अन्न आदि की उत्पत्ति का वर्णन है।
तो आइये पढ़ते हैं विष्णु पुराण कथा में प्रथम अंश के छठे अध्याय की कथा।
तो बोलिए प्रेम से भगवान विष्णु की जय माता लक्ष्मी की जय सर्व देवी देवता की जय।
श्री मैत्रेय जी बोले की है भगवान आपने जो प्रवाह स्रोत मनुष्य के विषय में कहा उनकी सृष्टि ब्रह्मा जी ने किस प्रकार की? यह विस्तार पूर्वक आप मुझे कहिए। श्री प्रजापति ने ब्राह्मण आदि वर्ण को जिन जिन गुना से युक्त और जिस प्रकार रचा तथा उनके जो जो कर्तव्य कर्म निर्धारित किया वह सब वर्णन कीजिए।
श्री पाराशर जी बोले की हे द्विज श्रेष्ठ जगत रचना की इच्छा से युक्त सत्य संकल्प श्री ब्रह्मा जी के मुख से पहले सातवा प्रधान प्रजा उत्पन्न हुए तब उनके वक्षा स्थल से रजा प्रजान तथा जंघा से राज और तम विशिष्ट सृष्टि हुई हे दुयोत्तम चरणों से ब्रह्मा जी ने एक और प्रकार की प्रजा उत्पन्न की वह तम प्रधान थी।
यही सब चारों वर्ण हुए इस प्रकार हे दुयोत्तम,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र यह चारों कर्मशः ब्रह्मा जी के मुख वक्षा स्थल जानू और चरणों से उत्पन्न हुए हैं। हे महाभाग्य ब्रह्मा जी ने यज्ञनुष्ठान के लिए ही यज्ञ के उत्तम साधन के लिए सम्पूर्ण चातुर्य वर्ण की रचना की है। हे धर्माज यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसा कर प्रजा को तृप्त करते हैं अतः यज्ञ सर्वथा कल्याण हेतु है जो मनुष्य सदा स्वधर्म पारायण सदाचारी सज्जन और सुमार्गामी होते हैं उन्हीं से यज्ञ का यथावत अनुष्ठान हो सकता है।
हे मुने यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस मनुष्य शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकता है तथा और भी जिस स्थान कि उन्हें इच्छा हो उसी को जा सकते हैं। हे मुनि सत्यम ब्रह्मा जी द्वारा रची हुई वह चातुर्य वर्ण विभाग में स्थित प्रजा अति श्रद्धा युक्त आचरण वाली स्वेच्छा अनुसार रहने वाली संपूर्ण बढ़ाओ से रहित शुद्ध अंतःकरण वाली सतकुलो उत्पन्न और पुण्य कर्मों के अनुष्ठान से परम पवित्र थी।
उसका चित्र शुद्ध होने के कारण उसमें निरंतर शुद्ध स्वरूप श्री हरि के विराजमान रहने से उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान के उस विष्णु नमक परम पद को देख पाते थे फिर त्रेता युग के आरंभ में हमने तुमसे भगवान के जी काल नामक अंश का पहला वर्णन किया गया है वह अति अल्पसार वाले सुख वाले कुछ और घोर और दुखमय पापा को प्रजा में प्रति कर देते हैं।
हे मैत्रेय उसे प्रजा में पुरुषार्थ का विघातक तथा अज्ञान और लाभ को उत्पन्न करने वाला राग आदि रूप धर्म का बीज उत्पन्न हो जाता है। तभी से उसे वह विष्णुपद प्रति रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्ट सिद्धियां नहीं मिलती।
उन समस्त सिद्धियों के क्षीण हो जाने पर और पाप के बढ़ जाने से फिर संपूर्ण प्रजा द्वंद हाथ से और दुख से आतुर हो गए तब उसने मरुभूमि पर्वत और जल आदि के स्वाभाविक तथा कृतिम दुर्ग और पूर तथा खरवड आदि स्थापित किया।
हे महामते उन पुर आदिको में शीत और गम आदि बढ़ाओ से बचने के लिए उसने यथायोग्य घर बनाए इस प्रकार शीतोष्णद्दी से बचने का उपाय करके उसे प्रजा ने जीविका के साधन रूप कृषि तथा कला कौशल आदि की रचना की हे मुने धान जौ गेहूं छोटे धान्य तिल कंगनी ज्वार को दो छोटी मटर उड़द मूंग मसूर बड़ी मटर कुलथी राय चना और सन यह 17 ग्राम्य में औषधीय की जातियां हैं ग्राम्य में और वन्य दोनों प्रकार की मिलाकर कुल 14 औषधीय याज्ञक है और उनके नाम यह है – धन, जौ,उड़द, गेहूं, छोटे धान्य,तिल कंगनी और कुलथी यह आठ तथा श्यामक यानी की समा, निवार, वन तिल, गवेधू,वेणुयव, और मार्केट यानी की मक्का यह 14 ग्राम्य और वन्य औषधीया यज्ञानुष्ठान की सामग्रियां है और यज्ञ इनकी उत्पत्ति का प्रधान हेतु है।
यज्ञों के सहित यह औषधीया प्रजा की वृद्धि का परम कारण है इसलिए लोक और परलोक के ज्ञाता पुरुष यज्ञों का अनुष्ठान किया करते हैं है मुनिश्रेष्ठ नित्य प्रति किया जाने वाला यज्ञ अनुष्ठान का परम उपकार और उनके किए हुए पापों को शांत करने वाला है।
हे महामुनि जिनके चित्त में कल की गति से पाप का बीज बढ़ता है उन्हीं लोगों का चित्त यज्ञ में प्रवृत्त नहीं होता। उन यज्ञ के विरोधियों वैदिक मत वेद और यज्ञादी कर्म सभी की निंदा की है। वे लोग दूर आत्मा दुराचारी कुटिलमती और वेदविनिंदक और प्रवृत्ति मार्ग का उच्छेदन करने वाले ही थे।
हे धर्मवानो मैं श्रेष्ठ मैत्री इस प्रकार कृषि आदि जीविका के साधन के निश्चित हो जाने पर प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रजा की रचना कर उनके स्थान और गुणों के अनुसार मर्यादा वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा अपने धर्म का भली प्रकार पालन करने वाले समस्त वर्णों के लोक आदि की स्थापना की।
कर्म निष्ट ब्राह्मणों का स्थान पितृ लोक है युद्ध क्षेत्र से कभी न हटाने वाले क्षत्रियों का इंद्रलोक है तथा अपने धर्म का पालन करने वाले वैश्या का वायु लोक है और सेवा धर्म परायण शूद्रों का गंधर्व लोक है। 88000 उद्धव रेता मुनि है उनका जो स्थान बताया गया है।
वही गुरुकुल वास ब्रह्मचर्य का स्थान है इसी प्रकार वनवासी वानप्रस्थ का स्थान सप्त ऋषि लोक गृहस्थ का पितृ लोक और संन्यासियों का ब्रह्म लोक है तथा आत्मानुभव से तृप्त योगिया का स्थान अमर पद यानी कि मोक्ष है जो निरंतर एकांत से भी और ब्रह्मा चिंतन में मगध रहने वाले योगी जान है उनका जो परम स्थान है उसे पंडित जान ही देख पाते हैं चंद्र और सूर्य ग्रह भी अपने-अपने लोगों में जाकर फिर लौट आते हैं।
किंतु द्वादश अक्षर मंत्र ओम नमो भगवते वासुदेवाय का चिंतन करने वाले अभी तक मोक्ष पक्ष से नहीं लौटे। ता मिस्त्र, अंध ता मिस्त्र, महा ररव, ररव, अस पत्र वन घर कल सूत्र और अचक आदि जो नरक हैं, वे वेदों की निंदा और यज्ञों का अनुच्छेद करने वाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषों के स्थान कह गए हैं।
इस प्रकार से श्री विष्णु पुराण के प्रथम अंश मैं अध्याय 6 की कथा पूर्ण हुई तो बोलिए प्रेम से विष्णु भगवान की जय लक्ष्मी मैया की जय सर्व देवी देवता की जय।