आज हम सरल हिंदी भाषा में दुर्गा सप्तशती का दूसरा अध्याय करने जा रहे हैं। जो व्यक्ति दुर्गा सप्तशती का पाठ करता है या उसे सुनता है, उसे सभी प्रकार के सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। प्राचीन कथाओं के अनुसार, स्वयं ब्रह्माजी ने इसे मानव कल्याण और रक्षा के लिए प्रदान किया है। इसमें देवी दुर्गा के कवच का वर्णन किया गया है।
दुर्गा सप्तशती का दूसरा अध्याय में हम देवताओं की तेज से देवी के प्रकट होने और महिषासुर राक्षस के वध की कथा के बारे में जानेंगे।
जब भी आप सरल तरीके से दुर्गा सप्तशती दूसरा अध्याय का पाठ करें, तो पाठ की शुरुआत से पहले चामुंडा मंत्र का जाप सात बार या उससे अधिक करें। पाठ समाप्त होने के बाद भी इसे जाप कर सकते हैं। यह मंत्र देवी की पूजा और दूसरा अध्याय पाठ के प्रभाव को और भी प्रबल बनाता है।
दुर्गा सप्तशती का दूसरा अध्याय
मेधा ऋषि ने कहा कि प्राचीन समय में राक्षसराज महिषासुर और देवताओं के राजा इंद्र के बीच 100 वर्षों तक भयंकर युद्ध हुआ। शक्तिशाली राक्षसों ने देवताओं की सेना को परास्त कर दिया। सभी देवताओं को पराजित करने के बाद महिषासुर इंद्र बन बैठा।
ब्रह्माजी को साथ लेकर सभी देवता महादेव और भगवान विष्णु के पास गए।
महिषासुर के साथ युद्ध का वर्णन: दूसरा अध्याय
देवताओं ने महिषासुर से हुए युद्ध की पूरी कथा विस्तार से सुनाई। उन्होंने बताया कि कैसे महिषासुर ने सूर्य, इंद्र, अग्नि, चंद्रमा, वरुण और अन्य देवताओं की शक्तियों को अपने हाथ में ले लिया और सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया। इसके कारण देवता पृथ्वी पर मनुष्यों की तरह रहने लगे।
देवताओं ने भगवान विष्णु और महादेव से प्रार्थना की, “हे प्रभु! शत्रु ने जो कुछ भी किया, वह हमने आपको बताया है। अब हम आपकी शरण में आए हैं, कृपया दैत्यों के विरुद्ध कार्रवाई करें।” इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु और महादेव क्रोधित हो गए।
प्रचंड तेज का उत्पन्न होना
भगवान विष्णु, महादेव और ब्रह्माजी के शरीर से प्रचंड प्रकाश निकला। यह प्रकाश इतना प्रबल था कि अन्य देवताओं जैसे इंद्र आदि के शरीर से भी एक महान तेज प्रकट हुआ। वह तेज एक पर्वत के समान विशाल हो गया और उसकी ज्योति चारों ओर फैल गई।
देवी शिवा का प्रकट होना
सभी देवताओं के शरीर से उत्पन्न यह दिव्य तेज, स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। तीनों लोकों में यह तेजस्वी महिला दिखाई दी। इस देवी का मुख महादेव के तेज से बना, बाल विष्णु के तेज से, दोनों वक्षस्थल चंद्रमा के तेज से, मध्य भाग इंद्र के तेज से, गंगा पृथ्वी के तेज से, नितंब ब्रह्माजी के तेज से, दोनों पैर वरुण के तेज से बने।
देवी शिवा का कृत्य और आभूषण
कुबेर के तेज से देवी की उंगलियां बनीं, प्रजापति के तेज से नाक और दांत, अग्नि के तेज से तीन नेत्र और संध्याओं के तेज से दोनों कान बने। इस प्रकार सभी देवताओं के तेज से कल्याणकारी देवी शिवा का जन्म हुआ।
देवताओं की प्रसन्नता और देवी को आशीर्वाद देना
देवी को देखकर, जो सभी देवताओं के तेज से प्रकट हुई थीं, दैत्यों से पीड़ित सभी देवता प्रसन्न हो गए। शिवजी ने अपने त्रिशूल से एक शूल निकालकर देवी को दिया। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उत्पन्न चक्र प्रदान किया।
देवी को उपहार और आभूषण देना
वरुण ने शंख दिया और अग्नि ने शक्ति। वायु ने धनुष और बाणों से भरे दो तरकश दिए। देवराज इंद्र ने अपने वज्र से उत्पन्न वज्र और ऐरावत हाथी की घंटी दी। यमराज ने कालदंड और वरुण ने पाश दिया।
प्रजापति द्वारा रुद्राक्ष की माला और ब्रह्माजी द्वारा कमंडल देना
प्रजापति ने रुद्राक्ष की माला और ब्रह्माजी ने कमंडल दिया। सूर्यदेव ने देवी के केशों को अपने तेज से भर दिया। काल ने खड्ग और एक उत्तम ढाल दी, और चारों सागरों ने सुंदर हरित वस्त्र प्रदान किए।
देवी शिवा को दिव्य आभूषणों से सजाया जाना
दोनों शरीरों को दिव्य चौंड़मणि बालियां, कंकर, शुद्ध अर्धचंद्र, बाहुबन्ध सभी बांहों में, पैरों में पायल, सभी उंगलियों के लिए रत्न-जड़ित अंगूठियां विश्वकर्मा ने एक उत्सव में प्रदान कीं। उन्होंने कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, अभेद्य कवच, और देवी के सिर और हृदय पर पहनने के लिए सुंदर कमल के फूलों की माला दी।
देवी को आभूषण और अस्त्र-शस्त्रों से सम्मानित करना
सागर ने देवी को सुंदर कमल का फूल दिया, हिमालय ने सवारी के लिए एक शेर और कई प्रकार के रत्न दिए, कुबेर ने संगीत से भरी एक प्याली दी और अन्य सभी देवताओं ने देवी को आभूषण और अस्त्र-शस्त्रों से सम्मानित किया।
देवी की भयंकर तलवार और उसका प्रभाव
देवी को आभूषणों से सजाया गया और उन्हें एक भयंकर तलवार दी गई। उस तलवार से एक प्रचंड ध्वनि उत्पन्न हुई, जिसने सम्पूर्ण संसार को गूंज उठाया और पृथ्वी पर सभी पर्वत और समुद्र कांपने लगे। देवता प्रसन्न हो गए। शेर पर सवार देवी ने फिर मुनियों से भक्ति भाव से स्तुति करवाई।
महिषासुर की सेना का आक्रमण
इसी बीच, देवताओं ने तीनों लोकों में हो रहे हलचल को देखा। असुरों के शत्रु महिषासुर ने अपनी पूरी सेना तैयार की और शस्त्रों से सजग हो गया। महिषासुर ने घबराकर कहा, “हे! यह क्या है?” और वह अपनी अनगिनत बाहों के साथ मंदिर की ओर दौड़ा।
देवी की शक्ति का प्रदर्शन
वहां उसने देवी को देखा, जो अपनी शक्ति से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं। पृथ्वी देवी से बाहर से दबाई जा रही थी। उनके मुकुट से आकाश में रेखाएं उत्पन्न हो रही थीं और उनके धनुष की डोरी तेज़ी से चमक रही थी।
राक्षसों और देवी के बीच युद्ध का आरंभ
सभी देवी-देवता वहां एकत्र हो रहे थे। देवी हजारों हाथों में फैल कर खड़ी थीं और राक्षसों और देवी के बीच युद्ध शुरू हुआ। कई प्रकार के अस्त्रों का प्रयोग होने लगा और सभी दिशाओं में उनकी ज्योति से आभायुक्त हो गई।
महिषासुर के साथ देवी का युद्ध
महिषासुर की सेना के सेनापति, राक्षस चिक्षुर और उदग्र नामक असुर ने देवी के साथ युद्ध किया।
असुर महिषासुर ने अपनी पूरी सेना, जिसमें 60 हजार रथी थे, के साथ युद्ध भूमि पर प्रवेश किया। उसके साथ असुरों का एक बड़ा दल था जिसमें महाहनु नामक असुर 1 करोड़ रथियों के साथ, महासुर असिलोमा 5 करोड़ रथियों के साथ और एक अन्य असुर बिडाल हाथियों और घोड़ों के साथ युद्ध करने के लिए आया। इसके अलावा, दस हजार रथ, हाथी और घोड़े लेकर कई अन्य असुरों ने देवी के साथ युद्ध शुरू किया।
महेश्वर और असुरों का आक्रमण
महेश्वर भी अपने साथ करोड़ों रथ, घोड़े और हाथियों को लेकर युद्ध भूमि में पहुंचे। उन्होंने तोमर, भिंदीपाल, शक्ति, मुसल, ख़डग, परशु पट्टीश जैसे असुरों के अस्त्रों से युद्ध किया। असुर देवी पर विभिन्न प्रकार से आक्रमण कर रहे थे – कुछ शक्तियां फेंक रहे थे, कुछ मुट्ठियों से प्रहार कर रहे थे, और कुछ देवी को मारने के लिए दौड़ रहे थे। लेकिन देवी ने उन असुरों के अस्त्रों को अपने अस्त्रों से काट डाला, जैसे वह कोई शास्त्रों का खेल खेल रही हो। देवी के चेहरे पर क्रोध और दया का मिश्रित रूप दिखाई दे रहा था।
देवी की शक्ति और असुरों का संहार
यह दृश्य देखकर देवता और ऋषि स्तुति करने लगे। फिर देवी ने अपनी शक्तियों से उन असुरों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। देवी के शेर ने आक्रोशित होकर समुद्र में ऐसे दौड़ना शुरू किया जैसे कोई वाहन हो। उस दौरान आग फैलने लगी और देवी के श्वास से लाखों गण उत्पन्न हुए।
परशु भिंदीपाल तथा पट्टीश उन गणों पर खड़े होकर युद्ध कर रहे थे और उन्होंने पेटीस जैसे अस्त्रों से युद्ध शुरू किया। ढोल, मृदंग और शंकर के मंत्रों से त्रिशूल बजने लगे। देवी ने उसे त्रिशूल दिया, और शक्ति वर्षा तथा खड़क जैसे अस्त्रों से उसने असुरों को मारा। उसने घंटी की आवाज से कई असुरों को सम्मोहित किया और उन्हें धरती पर गिरा दिया।
असुरों का संहार और उनकी मौत
देवी ने कई असुरों को नजदीक पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर घसीट लिया और खड़क से कई को मारा। कुछ असुर जमीन पर गिरकर मर गए, कुछ राक्षस मुस्लिम बनकर खून उगलने लगे। कई असुर बाणों और बाघों के हमलों से मर गए।
इस प्रकार देवी ने अपनी अपार शक्ति और युद्ध कौशल से महिषासुर और उसके दल को नष्ट कर दिया।
महिषासुर के सैन्य का संहार
देवता और ऋषि असुरों से भारी कष्ट झेल रहे थे। वे असुर जो चहचहाती हुई चिड़ियों की तरह हमला कर रहे थे, बहुत कठिनाई से मारे गए। भूतों के हाथ कट गए और उनके शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गए। असुरों के सिर कट गए, उनके धड़ काट दिए गए और बहुत से असुर पृथ्वी पर गिरकर मर गए। कुछ असुरों की आंखें एक-एक करके काटी गईं और कई असुरों के शरीर को आधे-आधे करके काट दिया गया।
देवी के शेर का क्रोधित स्वर
अनेकों असुरों का संहार देवी ने अपनी शक्ति से किया, और उनकी लाशें पृथ्वी पर बिखर गईं। बहुत से असुरों के सिर काटने के बावजूद वे फिर से खड़े हो गए, हाथियों को पकड़कर खड़े हो गए और देवी से युद्ध करते रहे। युद्ध भूमि खून से सनी हुई थी, जहां असुरों के सिर, हाथी, घोड़े, टूटे हुए रथ और शव बिखरे हुए थे। खून की नदियाँ बह रही थीं। देवी की शक्तियों से उस युद्ध का रूप ऐसा हो गया जैसे अग्नि सूखे वृक्षों और लकड़ी के ढेर को तेज़ी से जला देती है।
देवी का शेर और असुरों का संहार
वहीं देवी के शेर ने एक गहरा गर्जन किया, और ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह असुरों की आत्मा को नष्ट कर रहा हो। देवी के चरणों में देवता और ऋषि फूलों की वर्षा कर रहे थे और देवी की स्तुति कर रहे थे।
महिषासुर सैन्यबद्ध का समापन
इस प्रकार महिषासुर और उसके सैन्य का संहार कर देवी ने युद्ध समाप्त किया। यह युद्ध का दूसरा अध्याय “महिषासुर सैन्यबद्ध” के रूप में संपन्न हुआ।
चामुंडा मंत्र का जाप
जब भी आप सरल तरीके से दुर्गा सप्तशती का पाठ करें, तो पाठ की शुरुआत से पहले चामुंडा मंत्र का जाप सात बार या उससे अधिक करें। पाठ समाप्त होने के बाद भी इसे जाप कर सकते हैं। यह मंत्र देवी की पूजा और पाठ के प्रभाव को और भी प्रबल बनाता है।
चामुंडा मंत्र:
“ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे“